मुस्तफा ज़ैदी का कलाम असद अमानत अली खां
की आवाज़ में -
कोई हमनफ़स नहीं है, कोई राज़दां नहीं है
फ़कत इक दिल था मेरा सो वो मेहेरबां नहीं है.
किसी और ग़म में इतनी ख़लिश-ऐ-निहां नहीं है
ग़म-ऐ-दिल मेरे रफ़ीको ग़म-ऐ-रायेगां नहीं है.
मेरी रूह की हकीक़त मेरे आंसुओं से पूछो
मेरा मज्लिसी तबस्सुम मेरा तर्ज़ुमा नहीं है.
किसी आँख को सदा दो किसी ज़ुल्फ को पुकारो
बड़ी धूप पड़ रही है कोई सायेबां नहीं है.
इन्ही पत्थरों पे चलकर अगर आ सको तो आओ
मेरे घर के रास्तों में कोई कहकशां नहीं है.
1 comment:
प्रभावी अभिव्यक्ति...बहुत बहुत बधाई...
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