Tuesday, August 13, 2013

सिर झुकाकर भीगता हूँ बार बार, मैं भीमसेन

संगीत के आसपास कुछ कविताएं - १


मियाँ की मल्हार

-शिवप्रसाद जोशी

सिर पटक पटक कर रह जाता मैं ऐसे ही
अगर नहीं मिलते गुरू
इन झटकों को आप कहते हैं
वाह मियाँ वाह
वाह ये मल्हार

अकार में कौंधती हुई सरगम की बिजलियाँ
आसमान के ऊपर भी किसी आसमान से जाकर मिलतीं
गिरती हुईं यहीं मेरे वजूद पर
चमक जाती है घास
पेड़ हिलते हैं सिर झूमता है
फड़फड़ाते हैं हाथ चारों तरफ़ निर्वात में
भर भर कर ले आते
वहीं से उठाकर उलीच देता हूँ वहीं
आगे और आगे और आगे
किन्हीं अँधेरों में जा गिरते हैं

वे बोल
तड़क तड़क कर आती सहसा गुम हो जाती मुरकियाँ

मेरे जहाज़ का मस्तूल काँपता हुआ
स्थिर हो जाता है कुछ देर बाद
यहीं किसी रस्सी के सहारे
हाथ खींचते हैं वापस पास और पास और पास
या पीठ के पीछे तक का ज़ोर
घुटना उठ जाता है हिलने लगता है
कँधा थरथराने लगता है पेट
उमड़ घुमड़
कर लौट आते हैं सुर
कितने वक्रों से घिरा ये सँगीत
अजीब अजीब आकार के छल्ले क्षण भर के
पानी भरा जिनमें इतना
मुट्ठियों में कसता हूँ हथेली पर उछालता हूँ
देखता हूँ दानों की तरह
बिखेर देता हूँ आप सबकी तरफ़
मेरे पास चक्की है गुरू की
बीज मेरे पास
चोरी की है चाटता हूँ ये आलापचारी
सिर झुकाकर भीगता हूँ बार बार
मैं भीमसेन.

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