Tuesday, September 3, 2013

मौज-ए-साहिल से मिलो, माहे कामिल से मिलो


मुन्नी बेग़म का गाया यह गीत कई साल पहले नैनीताल में रहने वाले मेरे अतुलनीय संगीतकार मित्रों जगमोहन जोशी उर्फ़ मंटू और दिनेश कृष्ण अक्सर संगीत की हर महफ़िल में सुनाया करते थे. आज सुबह से उन्हीं को याद कर रहा था. आप भी सुनिए क्यों –

सुब्ह से शब से मिलो
प्यार से ढब से मिलो
नाज़ से झब से मिलो
शौक़ से सब से मिलो

मौज-ए-साहिल से मिलो, माहे कामिल से मिलो
सब से मिल आओ तो इक बार मेरे दिल से मिलो

दिल-ए-बर्बाद ने क्या टूट के चाहा है तुम्हें
किस तरह प्यार से मलमल के तराशा है तुम्हें
जबसे देखा है उसी शौक़ से देखा है तुम्हें
सर झुकाया है खुदा माना है पूजा है तुम्हें

रंग-ओ-निगहत से मिलो
ऐश-ओ-इशरत से मिलो
नूर-ओ-निखत से मिलो
शौक़ से सबसे मिलो

सब से मिल आओ तो इक बार मेरे दिल से मिलो

तुम मेरे होंटों पे रहती हो दुआओं की तरह
कितनी मासूम हो तुम मेरी वफाओं की तरह
दूर ही दूर हो जंगल की हवाओं की तरह
तुम चली आओ भरपूर घटाओं की तरह

सब नजारों से मिलो
नौबहारों से मिलो
शोख़ धारों से मिलो
तुम हजारों से मिलो

सब से मिल आओ तो इक बार मेरे दिल से मिलो

No comments: