Monday, October 7, 2013

और वह भी फ़ितूर फ़कत सपनों में ठूंसू


उलटबाँसी

-वीरेन डंगवाल

जैसे ही बटन दबाता हूं 
गंगा के पानी का बना रोशनी का एक जाल 
छपाक् से मुझे ले लेता है 
अपने पारदर्शी रस्‍सड़ गीले लपेटे में 

क्‍या पता कि रात है 
कि आसमान काला है 
कि मूंगफली के बीज में जो कि 
दरअसल जड़ भी है और फल भी 
तेल कब पड़ना शुरू होता है 
जिसमें छानी जाती हैं उम्‍दा सिकीं पूडियां 

क्‍या पता कि वे सिर्फ गेंदे हैं रबड़ की 
जो इस कदर नींदें हराम किए रहती है 
उन लड़कों की 
और वह भी फितुर फकत 
सपनों में ठूंसू वे सारे छक्‍के चउए 
और आखिर यह इलहाम भी कब जाकर हुआ 

दिल के टसकते हुए फोड़े पर 
कच्‍ची हल्‍दी 
या पकी पुलटिस बंधवाने के बजाय 
नश्‍तर लगवा लो 
जिनकी 
कोई कमी नहीं 

1 comment:

Unknown said...

ऐसी कविताओं से गुजरते हुए मुझे हमेशा ऐसा लगता रहा है कि इस कवि की एक चमकदार स्पिचिचुअलिटी है जो मोक्ष (फकत लालसाओं से छूटना)के काफी करीब है। परमशक्तिशाली मायावी मन को वह सिनेमा की तरह रिवांइड करके देखता और उस रहस्यमय कीमिया की खोज करता रहा है जिसकी करामात से मुखड़े,द्रव्य,द्रव और सम्मान के फंदे वगैरा की तस्वीरें पहले झंझावाती आवेगों फिर कर्म में बदल कर आदमी को तबाह करती ही रहती हैं। इस छोटे से जीवन में ऐसा और कवि नहीं देखा जिसे रपटने में बच्चों जैसा किंतु बहुत मंहगा मजा आता हो.