Sunday, October 6, 2013

वे इंडस्ट्री के तमाम संगीत निर्देशकों से कहीं ज़्यादा बड़े थे - सज्जाद हुसैन - १

हो सकता है ये अप्रामाणिक हों या शायद सच भी हों पर महान फ़िल्म संगीतकार सज्जाद हुसैन से समबन्धित ये दो क़िस्से अब हिन्दी फ़िल्म संगीत की किम्वदंतियों का हिस्सा बन चुके हैं. पहला यूं है कि सज्जाद की बनाई धुन पर बने एक गाने की रेकॉर्डिंग चल रही थी और लता मंगेशकर को उस जटिल धुन को गाने में ख़ासा संघर्ष करना पड़ रहा था. तनिक तीखी आवाज़ में सज्जाद हुसैन चिल्लाए – “ये नौशाद मियाँ का गाना नहीं है, आप को मेहनत करनी पड़ेगी.”
दूसरा क़िस्सा संगीत निर्देशकों की एक मुलाक़ात का है जब उस ज़माने की पारम्परिक डिप्लोमेसी को दूर हटाकर सज्जाद साहब मदन मोहन के पास गए और कहने लगे “मेरा गीत चुराने के पीछे आपका क्या मक़सद है?” (फ़िल्म ‘संगदिल’ के गीत “ये हवा ये रात ये चांदनी” को मदनमोहन ने हाल ही में फ़िल्म ‘आख़िरी दांव’ के गीत ‘तुझे क्या सुनाऊँ मैं दिलरुबा’ में बाकायदा अपनी धुन बनाकर पेश किया था.)
सज्जाद के व्यक्तित्व की ये दो पहचानें – जटिल और कई स्तरों वाली धुनें बनाना और उनका बेबाक अंदाज़ – उनसे उनकी दूसरी त्वचा की तरह ताउम्र चिपकी रहीं. और ये पहचानें बेहद दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से मिलजुलकर एक महान करियर को धुंधला देने की वजहें बनीं.
यह सिर्फ़ उनकी कम्पोज़ीशन्स की जटिलता ही नहीं थी जिसने उन्हें नुकसान पहुंचाया – आख़िर वे एक ऐसे कालखंड में काम कर रहे थे जब संगीत निर्देशकों के पास बाकायदा क्लासिकल संगीत की लम्बी परम्परा की बुनियाद हुआ करती थी. उनकी पराजय के बीज निर्माताओं और निर्देशकों को ठीक से हैंडल न कर पाने में छुपे हुए थे. ये लोग कभी कभी तो संगीत के मामले में जाहिल तक हुआ करते थे और उन्हें सिर्फ़ सज्जाद की आसान और सपाट धुनें चाहिए होती थीं. सज्जाद के समकालीनों को चतुराई के साथ ऐसी स्थितियों से निबटना आता था जबकि सज्जाद ऐसी कोई भी बात होने पर सीधे सीधे फ़िल्म से बाहर चले जाते थे. “वे बहुत प्रतिभावान आदमी थे और संगीत का उनका ज्ञान विशद था, लेकिन उनका टेम्परामेंट उनकी असफलता का कारण बना.” नौशाद कहते हैं “अगर कोई आदमी छोटी सी सलाह भी उन्हें देता था तो वे पलटकर कहा करते थे ‘तुम संगीत के बारे में जानते ही क्या हो?’ वे करीब हर किसी से लड़ाई कर बैठते थे. इस वजह से उन्हें अपनी ज़्यादातर ज़िन्दगी घर में बैठना पड़ा उनकी प्रतिभा व्यर्थ गयी. लेकिन उनका काम चाहे वह कितना ही कम क्यों न हो, भारतीय फ़िल्म संगीत के सर्वश्रेष्ठ में गिना जाता है.”
संगीत के इतिहासकार राजू भारतन जिनका सज्जाद के के साथ लम्बा साथ रहा, इस महान संगीतकार के बारे में कुछ अलग खयालात रखते हैं “यह सच है कि वे संगीत के मामले में अनाड़ी लोगों को अपने काम में दखल नहीं देने देते थे लेकिन उनके अड़ियल होने की बात सही नहीं है.” वे कहते हैं “सज्जाद के अपने हर काम को लेकर एक लॉजिक और रेशनेल होता था. उनकी विद्वत्ता से परिचित होने के लिए आपको उन्हें जानना होता था. सच यह है कि वे इंडस्ट्री के तमाम संगीत निर्देशकों से कहीं ज़्यादा बड़े थे." 

(जारी) 

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सज्जाद हुसैन (१५ जुलाई १९१७ – २१ जुलाई १९९५)

फिल्मोग्राफ़ी –

गाली – १९४४
दोस्त – १९४४
धर्म – १९४५
१८९७ – १९४६
तिलिस्मी दुनिया  - १९४६
कसम- १९४७
मेरे भगवान – १९४७
रूपलेखा – १९४९
खेल – १९५०
मगरूर – १९५०
हलचल – १९५१
सैय्याँ – १९५१
संगदिल -१९५२
रुख़साना – १९५५
रुस्तम सोहराब  - १९६३
मेरा शिकार – १९७३
आख़िरी सौदा – १९७७

1 comment:

Rajesh said...

Excellent information!

rajeshkamal.blogspot.in