उम्दा कहानीकार पत्रकार-सम्पादक
जनाब संजय खाती ने नवभारत के स्वर्ण उत्खनन प्रकरण पर नवभारत टाइम्स के ब्लॉग में यह
पोस्ट लगाई है. उनकी इजाज़त से आपके लिए पेश करता हूँ -
बेहोशी से जगाएगा डौडियाखेड़ा का सपना?
-संजय खाती
डौडियाखेड़ा कल तक ऐसा नाम था, जिसे एक
बार सुनने पर कोई समझ नहीं पाता और समझ लेता तो याद रखने की जहमत नहीं उठाता। जरा
भी इच्छा नहीं उठती मन में कि देखूं भारत के नक्शे पर यह है कहां। डौडियाखेड़ा नाम
से ही वह बचपन की एक उपेक्षित भुला दी गई जगह लगती है, जो एक
काल्पनिक गांव पीपली जितनी भी दिलचस्प नहीं। अगर आमिर खान ने 'पीपली लाइव' की जगह डौडियाखेड़ा लाइव बनाई होती तो
शायद उसे ऑडिएंस के लाले पड़ जाते।
लेकिन आज डौडियाखेड़ा में जो
ब्लॉकबस्टर कहानी बन रही है, उसके सामने पीपली लाइव कुछ भी नहीं।
पीपली टीआरपी क्रेजी मीडिया और बेरहम सिस्टम के बीच फंसे एक इंसान की ट्रैजडी की
कहानी थी। लेकिन डौडियाखेड़ा तो मूरख सरकारों की निगहबानी में हम करोड़ों लोगों के
सामूहिक छल की महागाथा है, जो हम सदियों से अपने आप से करते
आए हैं। इंतजार में खुली आंखों और रुकी सांसों के बीच एक खस्ताहाल मंदिर के पास
खजाने की तलाश में चलती सरकारी कुदालों का यह नजारा भारत की पूरी दास्तान बयां कर
देता है। यह एक बेजोड़ नजारा है, जहां भारत के भूत, भविष्य और वर्तमान एक साथ झलक रहे हैं, जहां हम जान
सकते हैं कि हम जो हैं, वह क्यों हैं। डौडियाखेड़ा भारत का
मिनिएचर मॉडल बन गया है।
यह दास्तान है उसी अवैज्ञानिक
सोच और भाग्यवाद की, जिसने भारत का इतिहास गढ़ा। पुराने सबूत बहस, तर्क
और बौद्धिक उत्तेजना की एक लंबी परंपरा की गवाही देते हैं, जो
भारतीय दर्शनशास्त्र के छह अंगों के बीच चली। हालांकि साइंटिफिक थिंकिंग में भारत
का दावा तब भी कमजोर ही रहा, लेकिन जब से मिथक और भाग्यवाद
के आगे घुटने टिक गए, तब से चेतना का अंधकार युग ही चलता
गया। किसी समाज को कुएं में धकेलना हो तो भाग्यवाद की घुट्टी से बेहतर जहर कोई और
नहीं हो सकता।
भाग्यवाद हमारा कर्मों में यकीन
खत्म कर देता है। वहां खजाने सिर्फ सपनों में दिखते हैं और वहीं दफन भी हो जाते
हैं। हम जमींदोज दौलत के ऊपर घुटनों में सिर दिए ऊंघते रहते हैं। उसी ऊंघ में हम
गौरव और महानता के भी सपने देखते हैं और हमारा खून खौलता रहता है। वही तंद्रा हमें
जातीय या धार्मिक जोश से भरते हुए कुर्बानी के लिए बेचैन बना देती है। हमारे सपनों
में वक्त ठहर जाता है। हमारा अतीत ही हमारा भविष्य बन जाता है।
इस मोड़ पर हम यह जानते हैं कि
भारत दुर्दशा का इतिहास क्या था, लेकिन डौडियाखेड़ा बताता है कि
इक्कीसवीं सदी में भी हम उसी सपने में जी रहे हैं। भाग्यवाद पर हमारी आस्था और
साइंटिफिक सोच को सस्पेंड रखने की हमारी काबिलियत में जरा भी फर्क नहीं आया है। 'क्या पता' का मंत्र जपते हम इस छल को कायम रखे हुए
हैं कि सोने की चिड़िया के पंजों के नीचे सोने का ज्वालामुखी फूट पड़ेगा। यहां तक
कि हम अपने साइंस को भी सपने के हवाले कर देते हैं।
तरक्की नींद से बाहर घटने वाली
चीज है। असल तरक्की उन्हीं समाजों के हिस्से आई है, जो अपने काम पर
यकीन करते हैं, जो अतीत की ओर मुंह किए नहीं रहते या फिर
जिनके पास कोई अतीत होता ही नहीं। उजड़े हुए समुदाय इसीलिए पुरुषार्थी होते हैं कि
भाग्य पहले ही उनका साथ छोड़ चुका होता है। भारत की ट्रैजिडी यह है कि हर चोट के
साथ इसकी नींद लंबी होती चली गई। क्या इसे बेहोशी कहा जाए? हजार
साल लंबी बेहोशी?
कुछ बरस पहले ऐसा लगने लगा था
कि भारत इस नींद से बाहर आ रहा है। इस जवान देश में पीढ़ीगत बदलाव के साथ बहुत से
खानदानी दोष बेअसर होते दिख रहे थे। उम्मीद बनी थी कि भारत अब अतीत के नहीं भविष्य
के सपने देखेगा। डौडियाखेड़ा इस उम्मीद के खिलाफ ऐलान की तरह है। क्या जागते-जागते
भारत की नींद कुछ और गहरी हो गई है?
सबसे आशावादी मैं बस इतना हो
सकता हूं कि इसे एक टक्कर समझूं। नींद और चेतना के बीच, सपने और
हकीकत, भाग्य और पुरुषार्थ, अतीत और
भविष्य के बीच मुकाबला। नींद के देवता जब भी मौका पाते हैं, अपना
राज कायम रखने की कोशिश करते हैं। वह अचानक हमें पुरानी लड़ाइयों में उलझा देते
हैं। लेकिन उनकी मुहिम अधूरी रह जाती है, क्योंकि हम जागने
के सपने भी देखने लगे हैं। आज की दुनिया में वैसी शांत जगहें अब नहीं बची, जहां खर्राटे भरे जा सकते हैं।
जब मैं भारत की चेतना में चल
रही इस जंग का अंदाजा लगाता हूं तो डौडियाखेड़ा एक ड्रामे में सिमट जाता है जैसे
कोई रियलिटी शो। यह जंग, उम्मीद है कि, तरक्की के पाले में ही जाएगी। भारत को
पीछे ले जाने वाले खयालात की हार हम पहले भी देख चुके हैं। अपनी किस्मत के लिए
लड़ने का जज्बा आज हर कहीं नजर आता है। वक्त हमारे साथ है।
डौडियाखेड़ा का सोना हमेशा के
लिए खोने से पहले हमें जगा सकता है।
1 comment:
सरकार को कुछ नहीं सूझ रहा है, वह बुरी तरह फंस चुकी है. डोडिया लाइव मोदी और अपने कुकर्मों से ध्यान बंटाने की एक असफल कोशिश लगती है.
पहले आसाराम को अरुशी तलवार जैसा चाटा, फिर चाणक्य नाम के बच्चे को चाटने लगे, फिर आनन् फानन में एक सपने के आधार पर कुछ ही घंटों में ए एस आई को खुदाई का आदेश दे दिया.
इन मैकालो की औलादों सोनिअभ्क्त देशद्रोहियों को देश की भद्द पीटने और जगहंसाई से कोई मतलब नहीं है.
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