Thursday, October 3, 2013

मैंने नेपोलियन से कहीं ज़्यादा चीज़ें की हैं और उनके सपने देखे हैं.

एक टुकड़ा फ़रनान्दो पेसोआ की कविता ‘तम्बाकू की दूकान’ से


मैं कैसे बताऊँ मैं क्या बनूँगा, मैं ख़ुद नहीं जानता मैं क्या हूँ?
वह हो जाऊं जो मैं सोचता हूँ?
लेकिन मैं तो इतनी सारी बातें सोचता रहता हूँ!
और इतने सारे लोग एक ही चीज़ बनने के बारे में सोचते हैं.
उतनी सारी चीज़ें हो नहीं सकती.
जीनियस? इस पल हज़ारों दिमाग़ सपने में ख़ुद को मेरी तरह जीनियस समझ रहे हैं.
और कौन जाने इतिहास उनमें से एक को भी याद रखेगा या नहीं.
महानता के उन तमान सपनों का अंत में खाद के सिवा कुछ नहीं बचना.
न, मैं ख़ुद पर यक़ीन नहीं करता.
हर पागलखाने के भीतर इतनी सारी सुनिश्चित बातों को लेकर सुनिश्चित पागल भरे पड़े हैं!
मैं जो किसी बात को लेकर निश्चित नहीं
क्या मैं उनसे कम सुनिश्चित हूँ या ज़्यादा?
न, ख़ुद को लेकर भी नहीं ...
दुनिया की कितनी दुछत्तियों में
कितने स्वघोषित जीनियस इस समय सपने देख रहे हैं?
कितनी महत्वाकांक्षाएं, उदात्त और स्पष्ट ...
हाँ सचमुच महत्वाकांक्षी, उदात्त और स्पष्ट ...
और क्या मालूम वे कारआमद भी हों,
कितनी देख पाएंगी दिन की रोशनी और कितनों को सुनवाई नसीब होगी?
दुनिया उन के लिए बनी है जो इसे जीतने के लिए पैदा होते हैं
उनके लिए नहीं जो इसे जीतने का सपना देखते हैं हालांकि वे सही हो सकते हैं.
मैंने नेपोलियन से कहीं ज़्यादा चीज़ें की हैं और उनके सपने देखे हैं.
मैंने अपनी तथाकथित आत्मा के भीतर ईसामसीह से ज़्यादा मानवता को पनाह दी है.
मैंने उससे कहीं ज़्यादा दर्शनों के बारे में छिपकर सोचा है जितने कांट ने लिखे होंगे.
तो भी मैं दुछत्ती में रहने वाला आदमी हूँ और शायद वही बना रहूँगा,
हालांकि मैं उसमें नहीं रहता;
मैं हमेशा वह होऊंगा जो इसके लिए पैदा नहीं हुआ था;
मैं हमेशा वह होऊंगा जिसे भीतर बस संभावनाएं होती हैं
मैं हमेशा वह होऊंगा जो उस दीवार में दरवाज़ा खुलने का इंतज़ार करता है
जिसमें कोई दरवाज़ा है ही नहीं,
जिसने अनंत ता अपना गान गाया एक मुर्गीबाड़े में
जिसने एक पोशीदा दीवार में इश्वर की आवाज़ सुनी.
ख़ुद पर यक़ीन? न, मैं नहीं करता
न ही किसी और चीज़ पर
उड़ेलने दो प्रकृति को मेरे उबलते सिर पर
उसका सूरज, उसकी बारिश, मेरे बालों को उलझाने वाली हवा.
और आने दो बाकी सारे को, अगर उसने आना है या आना ही है या बिलकुल नहीं आना.
सितारों के गुलाम बनाए जा चुके दिलों के मसले,
हमने बिस्तर से बाहर निकलते ही जीत लिया है दुनिया को,
लेकिन हम जागते हैं और दुनिया को अपारदर्शी पाते हैं,
लेकिन हम जागते हैं और दुनिया अजनबी नजर आती है,
हम सड़क पर निकलते हैं और सारी पृथ्वी वहां होती है,
साथ ही सौरमंडल, आकाशगंगा और वही पुरातन अनंत.

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