Wednesday, October 9, 2013

इस तरह चीखती हुई बहती है हिमवान की गलती हुई देह


गंगा स्तवन

-वीरेन डंगवाल 


यह वन में नाचती एक किशोरी का एकांत उल्‍लास है 
अपनी ही देह का कौतुक और भय ! 
वह जो झरने बहे चले आ रहे हैं 
हजारों-हजार 
हर कदम उलझते-पुलझते कूदते-फांदते लिए अपने साथ अपने-अपने इलाके की 
वनस्‍पतियों का रस और खनिज तत्‍व 
दरअसल उन्‍होंने ही बनाया है इसे 
देवापगा 
गंग महरानी ! 


गंगा के जल में ही बनती है 
हरसिल इलाके की कच्‍ची शराब 

घुमन्‍तू भोटियों ने खोल दिए हैं कस्‍बे में खोखे 
जिनमें वे बेचते हैं 
दालें-सुई-धागा-प्‍याज-छतरियां-पालिथीन 
वगैरह 
निर्विकार चालाकी के साथ ऊन कातते हुए 

दिल्‍ली का तस्‍कर घूम रहा है 
इलाके में अपनी लम्‍बी गाड़ी पर 
साथ बैठाले एक ग्रामकन्‍या और उसके शराबी बाप को 
इधर फोकट में मिल जाए अंग्रेजी का अद्धा 
तो उस अभागे पूर्व सैनिक को 
और क्‍या चाहिए ! 


इस तरह चीखती हुई बहती है 
हिमवान की गलती हुई देह ! 

लापरवाही से चिप्‍स का फटा हुआ पैकेट फेंकता वह 
आधुनिक यात्री 
कहां पहचान पाएगा वह 
खुद को नेस्‍तनाबूद कर देने की उस महान यातना को 
जो एक अभिलाषा भी है 

कठोर शिशिर के लिए तैयार हो रहे हैं गांव 

विरल पत्र पेड़ों पर चारे के लिए बांधे जा चुके 
सूखी हुई घास और भूसे के 
लूटे-परखुंडे 
घरों में सहेजी जा चुकी 
सुखाई गई मूलियां और उग्‍गल की पत्तियां 


मुखबा में हिचकियां लेती-सी दिखती हैं 
अतिशीतल हरे जल वाली गंगा !

बादलों की ओट हो चला गोमुख का चितकबरा शिखर 

जा बेटी, जा वहीं अब तेरा घर होना है 
मरने तक 

चमड़े का रस मिले उसको भी पी लेना 
गाद-कीच-तेल-तेजाबी रंग सभी पी लेना 
ढो लेना जो लाशें मिलें सड़ती हुईं 
देखना वे ढोंग के महोत्‍सव 
सरल मन जिन्‍हें आबाद करते हैं अपने प्‍यार से 

बहती जाना शांत चित्‍त सहलाते-दुलराते 
वक्ष पर आ बैठे जल-पाखियों की पांत को 


No comments: