Tuesday, October 8, 2013

वे इंडस्ट्री के तमाम संगीत निर्देशकों से कहीं ज़्यादा बड़े थे - सज्जाद हुसैन - ३

(पिछली क़िस्त से आगे अंतिम हिस्सा)

सज्जाद की प्रतिभा को उसका तोड़ उन्हीं की तकरीबन कम्पल्सिव परफेक्शनिज्म में था. सम्भवतः वे इकलौते संगीतकार थे जिन्होंने कोई असिस्टेंट्स नहीं रखे और सारा काम ख़ुद ही किया - शुरुआती धुन के निर्माण से ऑर्केस्ट्रेशन तक. “यहाँ तक कि वे तबलावादक के लिए बोल लिखने का काम भी करते थे.” उनके सुपुत्र नासिर अहमद बताते हैं “ऐसा नहीं था कि वे गाना शुरू करें और तबलची अपने मन मुताबिक़ कोई भी ठेका बजाने लगे. हरेक चीज़ उन्हीं के हिसाब से होना होती थी.”  
“वे बहुत सटीक हुआ करते थे” सज्जाद हुसैन की रेकॉर्डिंग मात्र के ख़याल से आक्रान्त हो जाया करने वाली लता मंगेशकर याद करती हैं “अगर कोई छोटा सा साज़ तक ज़रा सा सुर से बाहर चला जाता तो वे सब कुछ रुकवा कर सारी रेकॉर्डिंग दुबारा करते थे. “ये हवा ये रात ये चांदनी” के लिए इसी परफेक्शन की वजह से १७ री-टेक कराने पड़े थे. लेकिन सज्जाद इस गाने के एक सितार इंटरल्यूड को लेकर असंतुष्ट ही रहे अलबत्ता सितार उस ज़माने के एक मशहूर सितार-सारंगी वादक ने बजाया था. तनिक प्रसन्न होते हुए उनके बेटे कहते हैं “अपनी मृत्यु के दिन तक जब जब उन्होंने यह गीत सुना तो सितार के इंटरल्यूड को सुनते ही वे आह भरते हुए कहते थे ‘उसने वैसे नहीं बजाय जैसा मैंने कहा था.”  
“मेरी जानकारी में सज्जाद इकलौते कम्पोज़र थे जो अपने काम को लेकर पुनर्विचार किया करते थे.” भारतन कहते हैं “और यह आपकी ग्रोथ का पैमाना होता है. वे कहते थे ‘हलचल’ में लता का गया ‘आज मेरे नसीब में’ उनका सर्वश्रेष्ठ काम था लेकिन बाद में उन्हें लगने लगा था कि गीत कहीं बेहतर हो सकता था. उन्होंने बाद में ‘फिर तुम्हारी याद आई ऐ सनम’ और ‘दिल में समा गए सजन’ को सीधे सीधे डिसमिस कर दिया था. ‘वे निहायत साधारण चीज़ें हैं’ उन्होंने मुझसे कहा था. ‘तब आप लोग उन्हें इतना तूल काहे दे रहे हैं?’”
अगर सज्जाद को उनकी फ़िल्मी कम्पोज़ीशन्स के लिए जाना जाता है तो बताना ज़रूरी है कि उनकी कला का एक आयाम और था – वे एक स्वशिक्षित मैन्डोलिन वादक थे और इस यूरोपीय वाद्य पर ठेठ हिन्दुस्तानी क्लासिकी संगीत बजाकर शुद्धतावादियों को हैरान कर दिया करते थे. १९८२ में मद्रास में हुई एक कंसर्ट के बाद छपे एक रिव्यू में लिखा गया था “उस्ताद  सज्जाद हुसैन के हाथों में मैन्डोलिन ठीक वैसी ही शोभा पाता है जैसे रविशंकर के हाथों में सितार या अली अकबर खान के हाथों में सरोद. उनका वादन श्रेष्ठतम कोटि का था.”
लेकिन इस आदमी का जीनियस अप्रशंसित ही रहा. समझौता न करने की उनकी प्रवृत्ति और सांसारिक चीज़ों प्रति उनका विराग उन्हें संसार से दूर करता गया. अपने अंतिम वर्षों तक उनका शहंशाही आत्मगौरव बना रहा. लता मंगेशकर ने, जो उनके काफ़ी करीब थीं, प्रस्ताव दिया कि वे उनकी मैन्डोलिन कंसर्ट की व्यवस्था करना चाहेंगी. उस्ताद का जवाब था “अगर तुम्हें मेरा मैन्डोलिन सुनना है तो मैं तुम्हारे घर आकर बजा दूंगा पर खुदा के लिए मेरे लिए कोई कंसर्ट वगैरह की व्यवस्था करने की ज़रुरत नहीं.”  

२१ जुलाई १९९५ को ७९ साल की आयु में इस अद्भुत कम्पोज़र ने अपनी अंतिम साँसें लीं. उनके सुदूर एकाकी जीवन की छाया उनकी मृत्यु तक में नज़र आई जब सिवाय खैय्याम और पंकज उधास के कोई नामचीन्ह हस्ती फ़िल्म संसार से शोक प्रकट करने नहीं आई. “ऐसा देखना तकलीफदेह होता है” उनके सुपुत्र नासिर अहमद कहते हैं “लेकिन ज़्यादा अहम् बात यह है कि अपने जीवन के अंतिम दिन भी मेरे पिता प्रसन्न थे. किसी को लेकर कोई कडवाहट नहीं, न कोई पछतावा. वे बेहद सफल हो सकते थे, ढेरों रुपये कमा सकते थे, लेकिन उन्हें सिर्फ़ इतना चाहिए था कि उन्हें एक बड़ा संगीतकार माना जाय और मैं समझता हूँ वे ऐसा कर पाने में कामयाब हुए.”  

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