Friday, November 1, 2013

पर आम लोग भी तो पहले की तरह भेड़ बकरी नहीं रहे



यह पत्र मैंने फेसबुक पर एक लिंक से सीधे उठाया है. हमारे समय-समाज की महत्वपूर्ण पत्रिका 'इतिहासबोध' के संपादक प्रो. लालबहादुर वर्मा एक बार फिर हमें चेता रहे हैं. शुक्रिया दादा!   

भगत सिंह के नाम एक पत्र – 

प्यारे दुलारे भगत,

ख़त में एक दूरी तो है पर यह ख़त हम तुम्हारे मार्फ़त खुद को लिख रहे हैं - तुम से जुड़कर तुम्हें अपने से जोड़ रहे हैं..... तुमे हम क्या कहकर पुकारे यह तय करना बाकी है , क्योकि तुमसे जन्म का रिश्ता तो है नहीं कर्म का रिश्ता है और तुम्हें जो करना था कर गए , हमें जो करना है वह कितना कर पाते है यह इसे भी तय होगा की हम तुम्हें कैसे याद करते हैं.

बहरहाल इतना तो तय ही है की तुम्हें ''शहीदे आज़म'' कहना छोड़ दिया है. इसमें जो दूरी , जो परायापन था वह पास आने से रोकता रहा है. तुम्हें अनूठा ,असाधारण ,निराला बनाकर हम बचते रहे की तुम जैसा और कोई हो ही नहीं सकता.

आखिर क्यों नहीं हो सकता? आखिर तुमने ऐसा क्या किया है जो दूसरा नहीं कर सकता ? तुमने देश से प्रेम किया , समाज को बदलना चाहा. घर परिवार को समाज का अंग मान समाज को आज़ाद और बेहतर बनाना चाहा , आखिर तभी तो घर परिवार आज़ाद और बेहतर हो सकते थे.

तुमने अनुभव और अध्ययन से जाना और लोगों को बताया कि शोषण और जुल्म करने वालों में देशी-विदेशी का अंतर बेमानी होता है , तुमने कितनी आसानी से समझा दिया कि तुम नास्तिक क्यों हो गए थे ? तुमने कुर्बानी दी पर कुर्बानी देने वालों की तो कभी कमी नहीं रही है.आज भी कुर्बानी देने वाले हैं. हाँ तुम्हारी चेतना का विकास और व्यापक पहुँच असाधारण थी, पर कोई करने आमादा हो जाय तो ये सब मुश्किल भले ही हो पर असंभव तो नहीं होना चाहिए! पर हाँ, तुम्हारी तरह लगातार अपने साथ आगे बढ़ते जाने का जज्बा और कोशिश तो चाहिए ही.

तुमने जब अपने वक्त को और उसी से जोड़कर अपने को जाना पहचाना. तो हिन्दुस्तान पर बर्तानिया के हुक्मरानों की हुकूमत बेलौस और बेलगाम हो चुकी थी. आज अमरीकी निजाम उसी रास्ते पर है, वह ज्यादा ताकतवर, ज्यादा बेहया और ज्यादा बेगैरत है. उसे हर हाल में अपनी जरूरतें पूरी करनी हैं.पर दूसरी तरफ दुनिया तो पहले से ज्यादा जागी हुई है. खुद अमेरिका में ही लाखों लोग अपने ही देश में अमन और तहजीबो-तमददुन के दुश्मनों के खिलाफ बगावत पर आमादा हैं.

यह सच है की दुनिया को भरमाने और तरह तरह के लालचों के जाल में फसाकर न घर न घाट का कुता बना देने के ढेरों औजार और चकाचौध पैदा करने वाली फितरतें हैं हुक्मरानों के पास. लोगों को तरह तरह से बांट कर रखने के उपाय हैं पर आम लोग भी तो पहले की तरह भेड़ बकरी नहीं रहे.

आज ठीक है कि ज्यादातर लोग सम्मान पूर्वक रोटी दाल भी नहीं खा रहे और पढ़े लिखे लोग रोटी पर तरह तरह के मक्खन और चीज चुपड़ने में ही मरे जा रहे हैं. पर यह भी तो सच है कि ऐसे लोगों की तादाद बढ़ रही है जो जानने समझने लगे है कि जो कुछ उनका है वह उन्हें क्यों नहीं मिल पा रहा है ? आज आदमी के हक़ छीने जा रहे हैं यहाँ तक की हवा पानी के हक़ भी.. जो कुदरत ने हर किसी को दे रखा है. पर हकों की पहचान भी तो बढ़ रही है. आज इन्साफ की उम्मीद नहीं रही. पर इन्साफ के लिए खुदा नहीं ,इंसान को जिम्मेदार ठहराने की तरकीबें बढ़ रही हैं. इंसान धरती सागर ही नहीं अन्तरिक्ष को भी रौंद रहा है पर उसकी इंसानियत खोती जा रही है. पर साथ ही बढ़ रहा है हैवानियत से शर्म का अहसास , बढ़ रहे हैं भारी पैमाने पर लालच बेहयाई और बर्बरता..पर क्या गुस्सा नहीं बढ़ रहा?

तो भगत ! हम तुम्हारे अनुयायी नहीं ,तुम-सा बनना चाहते हैं बल्कि तुमसे आगे जाना चाहते हैं. क्योकि तुम-सा बनने से भी काम नहीं चलेगा. तुम रूमानियत से उबरते जा रहे थे ,पर क्या पूरी तरह ? आज के हालात में भी रूमानियत जरूरी है पर दाल में नमक भर... दुखी मत होना यह जानकर कि अब तो सफल होने में जुटे लोगों के लिए तुम प्रासंगिक नहीं रहे. आज़ादी के फ़ौरन बाद शैलेन्द्र ने लिखा था कि ''भगत सिंह इस बार न लेना काया भारतवासी की , देश भक्ति के लिए आज भी सजा मिलेगी फांसी की''.

मैं जानता हूँ, तुम्हें इतिहास से कितना प्रेम था. इत्मीनान रखना कि अनगिनत लोग तुमसे यानी अपने इतिहास से प्रेम करते हैं. वे इतिहासबोध से लैस हो रहे हैं. तुम्हारी मदद से, इतिहास की मदद से वे दुनिया बदलने पर आमादा हैं. हम पुराने हथियारों पर लगी जंग छुडा उन्हें और धारदार बनायेंगे और लगातार नए नए हथियार भी ढूढते जायेंगे. दोस्त दुश्मन की पहचान तेज करेंगे, हम समझने की कोशिश कर रहे हैं कि तुम आज होते तो क्या क्या करते? हमें तुम्हारे बाद पैदा होने का फायदा भी तो मिल सकता है. एक भगत सिंह से काम नहीं चलने वाला , हम सब को 'तुम' भी बनना होगा.

यह सब लिख पाना भी आसान काम नहीं था , बरसों लग गए यह ख़त लिखने में , जो कुछ लिखा है उसे कर पाने में तो और भी ना जाने कितना वक्त लगे... !

तुम्हारा ,

लाल बहादुर

इतिहासबोध

No comments: