Friday, November 1, 2013

पड़ोसियो, मैं तुम सब के लिए दीर्घायु की कामना करता हूँ

अलैक्ज़ेन्द्रिया में रहने वाली जर्मन मूल की मेरी मित्र ईफ़ा फ़ॉन नील ने मुझे एक सुदूर मिश्री क़स्बे सलाह-अल-दीन में अपने भ्रमण की कुछ तस्वीरें भेजीं. उनमें से एक तस्वीर देखकर मुझे बेसाख्ता नाज़िम हिकमत की कविता मेरा जनाज़ाकी याद हो आई. पेश है उस कविता का कबाड़शिरोमणि वीरेन डंगवाल द्वारा किया गया अनुवाद .ईफ़ा फ़ॉन नील का आभार –


मेरा जनाज़ा

-नाज़िम हिकमत

(अनुवाद वीरेन डंगवाल)

मेरा जनाज़ा क्या हमारे आँगन से उठेगा?
तीसरी मंजिल से कैसे उतारोगे मुझे?
ताबूत अंटेगा नहीं लिफ्ट में
और सीढियां निहायत संकरी हैं.

शायद अहाते में घुटनों भर धूप होगी और कबूतर
शायद बर्फ़ बच्चों के कलरव से भरी हुई,
शायद बारिश अपने भीगे तारकोल के साथ.
और कूड़ेदान डटे ही होंगे आँगन में हमेशा की तरह.

अगर, जैसा कि यहाँ का दस्तूर है,मुझे रखा गया ट्रक में खुले चेहरे
हो सकता है कोई कबूतर बीट कर दे मेरे माथे पर: यह शुभ संकेत है.
बैंड हो या न हो, बच्चे तो आयेंगे मेरे क़रीब
उनमें उत्सुकता होती है मृतकों के बारे में.

हमारी रसोई की खिड़की मुझे जाता हुआ देखेगी.
हमारी बालकनी मुझे विदा देगी तार पर सूखे कपड़ों से.
इस अहाते में मैं उस से ज़्यादा ख़ुश था जितना तुम कभी समझ पाओगे.
पड़ोसियो, मैं तुम सब के लिए दीर्घायु की कामना करता हूँ.


(अप्रैल १९६३, मॉस्को) 


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