Sunday, November 3, 2013

उस्ताद अमीर ख़ान – शख्सियत और उनका संगीत - दो

उस्ताद अमीर ख़ान – शख्सियत और उनका संगीत

प्रोफ़ेसर दीपक बनर्जी


एक प्रेरणा के तौर पर उस्ताद

ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाए तो कुछेक अपवादों को छोड़कर वादकों ने सीधी गत बजाने की परम्परा बनाए रखी है, हालांकि हाल के समय में, ध्रुपद के फॉर्मेट में वाद्य-प्रस्तुतियाँ भी देखी जाने लगी हैं, जिनमें आलाप के लंबे हिस्से होते हैं, और राग की बढ़त के लिए पर्याप्त समय मिल जाता है. विलंबित गतों में राग की बढ़त में विशिष्टता के लिए अपेक्षाकृत कम गुंजाइश रहती है. द्रुत गतों के साथ इस से भी बुरी स्थिति है. अमीर खान की विस्तार की तकनीक ने उन कई वादकों को प्रेरणा दी, जो अपने संगीत में ज़्यादा हासिल करना चाहते थे. उनकी मृत्यु पर सबसे अधिक छू लेने वाली बात एक युवा सितारवादक ने कही थी, “अब मैं उन गहराइयों के बारे में कहाँ से सीखूंगा जिन्हें महान संगीत खोज सकता है. 

गायकों के लिए विलंबित अब पहले जैसा नहीं रहा, और इस बदलाव का पीछे सबसे बड़ा प्रभाव अमीर खान का रहा है. हालांकि उनका कोई औपचारिक शिष्य नहीं था पर विभिन्न धाराओं के तमाम युवा गायक गहरी संजीदगी के साथ अमीर खान के टेपों को सुनते हैं, और उन तत्वों को खोजते हैं जो उनकी प्रतिनिधि शैलियों से मेल खाते हों. और कुछ उनकी नक़ल भी करते हैं. लेकिन अमीर खान की नकल करना पारा थामने का प्रयास करने जैसा होता है.

पाकिस्तान के उस्ताद सलामत अली खान ने एक बार मुझसे कहा था : “अमीर खान की नक़ल कोई नहीं कर सकता, क्योंकि अपने गीतों के माध्यम से अमीर खान ने अल्लाह से राब्ता कायम किया था. बशर्ते आप उस स्तर पर पहुँच चुके हों, वरना आप तकनीकी चीज़ों को खंगालते रहेंगे. बस.” अपनी बात को मज़बूत बनाते हुए उन्होंने पचास की दहाई के बीच के सालों में नई दिल्ली में हुई एक बैठक का ज़िक्र किया. किन्हीं वजहों से वादकों का नंबर पहले आया – वाद्य संगीत के सारे बड़े नाम. इसके बाद गायकों की बारी आई, सलामत अली खान और उसके बाद अमीर खान (और फिर आख़िरी पेशकश). “ऐसे सितारों की मौजूदगी में घबरा सा गया, लेकिन अमीर खान साहब ने मेरी हिम्मत बंधाई. वाद्य यंत्र आदमी बनाते हैं, मनुष्य की आवाज़ भगवान की रचना होती है, वे बोले. अपनी आवाज़ को भगवान की आवाज़ समझकर गाओ, भगवान के नाम पर गाओ और सारे वादक तुम्हारे आगे खोखले पड़ जाएंगे. इस से मैं इतना प्रेरित हुआ कि मैंने ऐसा गाया जैसा पहले कभी नहीं गाया था. जब मैं ठहरा तो खूब तालियाँ बजी लेकिन जिस बात के मेरे लिए सबसे ज़्यादा मानी हैं वह था कि जब मैं मंच से उतरा तो खानसाहब ने मुझे गले लगाया और मेरे गायन पर मुबारकबाद दी. लेकिन तब भी शायद तालियां मेरे दिमाग पर हावी हो गयी थीं . मुझे ऐसा लगा कि मेरे गाने के बाद कोई भी संगीत बोदा ही लगेगा और अब खानसाहब की बारी थी; महान तो वे थे ही पर मेरे जैसा तो क्या ही गा सकेंगे. मैंने उनसे पूछा आप क्या गाने जा रहे हैं? कुछ खास नहीं, वे बोले, गवैयों के लिए महफ़िल तुम पहले ही जीत चुके हो. मैं कुछ देर को मारवा गाऊंगा बस, खानसाहब बोले.” 


“अब हम सब जानते हैं अमीर खान साहब मारवा कितना अच्छा गाते थे. लेकिन उस रात कुछ घटा. मुझे नहीं पता क्या! उनके पन्द्रह मिनट गाने के बाद संगीत उस सब से परे चला गया जो सब मैंने किया था. ऐसा लग रहां था कि सारे संगीत में सिर्फ एक ही राग है – मारवा. खानसाहब ने करीब नब्बे मिनट तक गाया, वे खड़े हुए और मंच से उतरे. श्रोताओं में न कोइ हरकत थी, न तालियाँ. हम सब कुछ देर मंत्रमुग्ध रहे और उसके बाद तालियों के दौर. नहीं, एक और आइटम के लिए कोइ फरमाइशें नहीं थी. क्या घटा था? बस एक जादू. देखिये मेरे पास भी बहुत अच्छी आवाज़ है, मैं बाकी के ज़्यादातर लोगों से अधिक रियाज़ करता हूँ, और सारे कहते हैं कि मेरे भीतर प्रतिभा है. लेकिन इन सब से आप एक सीमा तक ही जा सकते हैं. उस शाम खानसाहब ने हमें एक झलक दिखलाई कि ईश्वर का हाथ थामे कोई कितनी दूर तक जा सकता है.”

(जारी)

No comments: