सीरियाई
कवि अदूनिस के संग्रह ‘दिन और रात के सफ़े’ से कुछ कवितायेँ और –
संदेशवाहक
सुनो
मुझे
बताने दो
अपना
सपना तुम्हें.
मैंने
एक बच्चे को देखा
जैसे
पानी पर
हवा
और पत्थर चलाते हुए
पानी
के अन्दर था औदार्य
जिस
तरह कुछ बन जाने की दौड़
में
ठुंसे रहते हैं बीज.
लेकिन
मैं किस बात का दुःख मना रहा था
अकाल
और आंसुओं की सल्तनत
के
किसी शोकगीत जैसा?
सुनो!
मैं
पुकार रहा हूँ तुम्हें
ताकि
तुम पहचान सको मेरी आवाज़!
मैं
हूँ तुम्हारा भाई
फ़िज़ूलखर्ची
करता हुआ.
दौडाए
लिए जाता
मृत्यु
के घोड़े को
‘नियति’
का निशान लगे फ़ाटक तलक.
बीता
हुआ वक़्त
हर
दिन मर जाता है एक बच्चा
दीवार
के पीछे
उसका
चेहरा तब्दील होता है
दीवार
के कोनों में.
प्रतिशोध
की मांग कर रहे
उसके
प्रेत के अपनी कब्र से निकल आने से पहले
घर
छोड़ कर चले जाते हैं अपने ठिकाने.
अमरता
से नहीं
वह
वापस लौटता है एक कड़वी भूमि से
जैसे
चला आता हो गोलियों से बचता
नगर
से, सार्वजनिक चौराहों से
गरीबों
के घरों से.
वह
रेगिस्तान से आता है,
और
चेहरे पर है
कबूतरों
और सूखते फूलों की भूख.
पत्तियों
के ऊपर
एक
दूसरे में उलझे बादलों में
गोता
लगाया दो सितारों ने.
उनका
सलाम स्वीकार करने को
मैंने
ठहरकर अपना सिर झुकाया.
लेकिन
हिलता ही रहा
हिलता
ही रहा
खजूर
का पेड़
उसकी
गढ़ी हुई पत्तियाँ
जैसे
दुःख की कहानी लिखने वाले बूढ़े धर्मोपदेशक,
अब,
अब हिलीं
देखने
और दर्ज़ करने को
(सरहदों
के भीतर
जहाँ
कोई देखता नहीं)
कि
किस तरह अन्तरिक्ष शुरू होता है पेड़ों से
और
किस तरह
उनके
ऊपर
होते
हैं सितारे
...
हवा, सिर्फ़ हवा, हवा सिर्फ़.
पुकार
सुबह
के मेरे प्यार
मुझे
मिलना उदास खेत में.
मुझे
सड़क पर मिलना
जहां
सूखी पत्तियों ने
हमें
बचाया
जैसे
अपनी सूखी छायाओं के नीचे से बचाया बच्चों ने.
क्या
तुम शाखाओं को देख पाती हो?
क्या
सुनाई देती है शाखाओं की
पुकार?
शब्द
हैं उनकी युवा कोंपलें
जो
शक्ति देती हैं मेरी आँखों को
पत्थर
को फोड़ सकने
की
शक्ति.
मुझसे
मिलो! मिलो मुझसे,
जैसे
कि हम अभी से तैयार हो चुके थे
और
जाकर हमने खटखटाया थे
अँधेरे
का बुना हुआ दरवाज़ा
एक
तरफ किया था परदे को
खोली
थी खिड़कियाँ
और
वापस पहुँच गए थे
शाखाओं
के घुमावों तक.
अगर
हमने उड़ेले होते अपनी पलकों के कोरों से
ऐसे
सपने, ऐसे आंसू
अगर
हम रहे होते
शाखाओं
के एक मुल्क में
और
हमने न चाहा होता
लौटना
कभी भी.
जंगल
में
मुझे
अकेला छोड़ दो.
आने
दो परिंदों को.
धरे
जाने दो पत्थरों को पत्थरों के ऊपर.
मुझे
अकेला छोड़ दो.
जब
मैं टहलता हूँ
पेड़ों
के जुलूस के साथ
मैं
जगाता चलता हूँ सड़कों को.
शाखाओं
के तले
मुझे
याद आती हैं यात्राएं
जब
मैं जागा करता था
विदेशी
सूर्यों के नीचे और
मोहरबंद
कर देने देता था सुबहों को अपने रहस्य.
मुझे
अकेला छोड़ दो.
एक
रोशनी ने
मुझे
हमेशा घर का रास्ता दिखलाया है.
एक
आवाज़ पुकारती रहती है हमेशा.
1 comment:
अभिव्यक्ति की नयी विमाओं को सामने लाने का आभार...
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