Monday, December 16, 2013

हम मारे जाएंगे अगर नहीं रचेंगे देवताओं को, हम मारे जाएंगे अगर हम उनकी हत्या नहीं करेंगे


सीरियाई कवि अदूनिस के संग्रह “दिन और रात के सफ़े” से कुछ और अनुवाद. काफ़ी समय पहले इसी ब्लॉग पर अदूनिस की कविता को लेकर एक छोटा परिचयात्मक लेख लगाया गया था. उसे दोबारा से लगा रहा हूँ.

अदूनिस - विडंबनाओं और पराकाष्ठाओं के कवि

सीरिया में १९३० में जन्मे सीरियाई – लेबनानी मूल के कवि, साहित्यालोचक, अनुवादक, और सम्पादक अदूनिस (मूल नाम अली अहमद सईद) अरबी साहित्य और कविता का एक अत्यंत प्रभावशाली नाम हैं. अपने राजनैतिक विचारों के लिए अदूनिस को अपनी ज़िन्दगी का एक हिस्सा जेल में बिताना पड़ा था. १९५६ में अपना मूल देश त्यागने के बाद अदूनिस लेबनान में रहने लगे. “मैं एक ऐसी भाषा में लिखता हूँ जो मुझे निर्वासित कर देती है,” उन्होंने एक दफा कहा था. “कवि होने का मतलब यह हुआ कि मैं कुछ तो लिख ही चुका हूँ पर वास्तव में लिख नहीं सका हूँ. कविता एक ऐसा कार्य है जिसकी न कोई शुरुआत होती है न अंत. यह असल में एक शुरुआत का वायदा होती है, एक सतत शुरुआत.” उनका नाम इधर अरबी कविता में आधुनिकतावाद का पर्याय बन चुका है. कई बार अदूनिस की कविता क्रांतिकारी होने के साथ साथ अराजक नज़र आती है; कई बार रहस्यवाद के क़रीब. उनका रहस्यवाद मूलतः सूफी कवियों के लेखन से गहरे जुड़ा हुआ है. यहाँ उनका प्रयास रहता है मनुष्य के अस्तित्व के विरोधाभासी पहलुओं के नीचे मौजूद एकात्मकता को और ब्रह्माण्ड के बाहर से अलग अलग दीखने वाले तत्वों की मूलभूत समानता को उद्घाटित कर सकें. लेकिन अलबत्ता उनकी कविता रहस्यवाद और क्रान्ति के दो ध्रुवों के बीच की चीज़ नज़र आती है, ये दोनों ध्रुव उस में घुलकर एक सुसंगत निगाह में बदल जाते हैं और यही उनके कविकर्म की विशिष्टता है.  एक नई काव्य भाषा का निर्माण कर पाने का उनका संघर्ष और आर्थिक-राजनैतिक वास्तविकताओं को बदलने की उनकी आकांक्षा अक्सर एक नई पोयटिक्स में तब्दील हो जाती है – एक पोयटिक्स जो अल-ज़ाहिर (प्रत्यक्ष) से ढंके अल-बातिन (गुप्त) को उद्घाटित कर सकने वाली मानवीय रचनात्मकता को रेखांकित करती है. उनकी कुछ शुरुआती कविताओं की सुबोधगम्यता, सौष्ठव और लयात्मक संरचना उनकी कुछ बाद की कविताओं की जटिलता और लयात्मकता की अनुपस्थिति के बरअक्स बिलकुल अलहदा हैं. अदूनिस विडंबनाओं और पराकाष्ठाओं के कवि हैं, जो अपनी हर नई रचना में अपने आप से आगे बढ़ जाते हैं. हालिया समय में उन्होंने ‘कविता’ के स्थान पर ‘लेखन’ की वकालत की है, जिसका आशय यह हुआ कि कविता ने अपनी फॉर्म के पारंपरिक ढाँचे से ऊपर उठ कर एक सम्पूर्ण कविता बनने का प्रयास करना चाहिए जिसके भीतर स्तरों, भाषाओं, आकारों और लयात्मक संरचनाओं की बहुलता समाहित हो. महान अरबी साहित्यिक-सांस्कृतिक आलोचक एडवर्ड सईद ने उन्हें “आज का सबसे जोखिम उठाने और उकसा देने वाला अरबी कवि” बताया है. अदूनिस के संग्रह “दिन और रात के सफ़े” के अनुवादक सैमुएल हाज़ो ने कहा है “अदूनिस के पहले एक अरबी कविता थी और अदूनिस के बाद एक अरबी कविता है.”  शैली के लिहाज़ से प्रयोगधर्मी और स्वर के लिहाज़ से किसी पैगम्बर सरीखी, अदूनिस की कविता में आधुनिकतावाद के नए औपचारिक उपकरणों और शास्त्रीय अरब कविता की रहस्यवादी इमेजरी का मेल पाया जाता है. उन्होंने निर्वासन की वेदना, अरब संसार की आध्यात्मिक हताशा और पागलपन और ऐंद्रिकता के नशीले अनुभवों को जगाया है. लेकिन उनके कार्य की सबसे बड़ी खूबी वह रचनात्मक विध्वंस है जो उस हर पंक्ति में जलता हुआ नज़र आता है जिसे वे लिखते हैं.  –

“हम मारे जाएंगे अगर नहीं रचेंगे देवताओं को
हम मारे जाएंगे अगर हम उनकी हत्या नहीं करेंगे.”      

आग का दरख़्त

नदी की बगल में
पत्तियों के आंसू बहाता एक दरख़्त रो रहा है.
आंसू-दर-आंसू सैलाब
उमड़ रहा है किनारे पर.
वह आग की अपनी भविष्यवाणी
पढ़कर सुनाता है नदी को.
मैं वह आख़िरी पत्ता हूँ
जिस पर किसी की निगाह
नहीं पड़ती.
मारे जा चुके
मेरे जन
जिस तरह मरती है आग –
बिना कोई निशान छोड़े.



क़ैदी

कोंपलों और घास में गिरफ़्तार
मैं अपने दिमाग में निर्माण करता हूँ एक द्वीप का
एक तट पर बुनता हूँ शाखाओं को.
घुल जाते हैं बंदरगाह. काली रेखाएं
उधेड़ती हैं ख़ुद को. मैं गुज़रता हूँ
रोशनी की बाधाओं और झरनों के बीच से
जिन्होंने मेरे सपने को बनाया था.
मुझे महसूस होता है हरेक तितली का
क़ैद किया गया आश्चर्य
जो डगमगाती है
अपने मरते पंखों की फड़फड़ाहट में.



भूख

भूखे ने एक जंगल रोपा
जहां रोते हुए लोग पेड़ बने
और शाखाएँ ... प्रसव पीड़ा झेल रही
स्त्रियों के वास्ते एक देश.
अजन्मे बच्चों की फसल उगी
इस ब्रह्माण्ड के खेत में
कोंपलों की तरह.
राख में तब्दील हो गया जंगल
उनकी चीखों से जो
मानो विनाश की मीनारों से आईं
जिनमें थे नन्हे भूखे स्वर

आरोप लगाते, आरोप लगाते, आरोप लगाते.

4 comments:

सुशील कुमार जोशी said...

वाकई हम मर रहे हैं !

vandana gupta said...

shaandar prastutikaran

मुनीश ( munish ) said...

क्या सीरिया, क्या ईरान , क्या मिस्त्र और क्या इंडोनेशिया - सबके अपने अपने देवता थे । सब मार डाले गए । हमारे बचे हैं क्योंकि वो असली हैं । जय बाबा बर्फ़ानी भूखे को अन्न , प्यासे को पानी । चलो पौषपत्री -- महाभंडारे में ।

अरुण अवध said...

असरदार कविताएँ।