परम्परा के बारे में
ढलान पर खड़ी है पहाड़ी बकरी
जिस दिन उसे बनाया गया था
तभी से जर्जर है मेहराबदार पुल
सेहियों जैसे घने वर्षों के बीच से
कौन देख सकता है क्षितिज को
दिन और रात, हवा में बजने वाली घंटियां
गोदनों वाले पुरुषों की तरह
गम्भीर
वे नहीं सुनतीं पुरखों की आवाज़ें
ख़ामोशी से प्रवेश करती है रात पत्थर के भीतर
पत्थर को हिला सकने की इच्छा
एक पर्वतश्रृंखला है इतिहास की किताबों में उठती गिरती
1 comment:
बहुत सुंदर !
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