इतने
भले मत बन जाना
- शिवप्रसाद जोशी
वोट देने की घड़ी आ गई है लोगो. घन
घमंड के गरज रहे हैं. नभ की छाती फटती है. अंधकार की सत्ता मत लाना. संस्कृति के
दर्पण में मुस्काती शक्लों को असल समझना. वे नष्ट करेंगे. इतना समझना. इतना भले न
बनना, न इतना दुर्गम, न इतना चालू. न कठमुल्ला बन जाना.
बस ये समझना कि काफ़ी बुरा समय है.
वोट देने की नौबत आई तो बस ये देखना कि अन्याय और नफ़रत फैलाने वालों को मौक़ा न
मिल जाए. वे फिर आपको खाने आएंगें. कबाड़ख़ाना के मुरीदों, पाठकों इनकी संख्या
लाखों में है. सबको बता दो. बस याददिहानी के लिए.
नैतिक और वैचारिक मुस्तैदी का
इम्तहान आ गया है. ये नागरिक जवाबदेही का वक़्त है दोस्तो.
“पहले
वे आये यहूदियों के लिए और मैं कुछ नहीं बोला
क्योंकि मैं यहूदी नहीं था
फिर वे आये कम्यूनिस्टों के लिए और मैं कुछ नहीं बोला,
क्योंकि मैं कम्यूनिस्ट नही था
फिर वे आये मजदूरों के लिए और मैं कुछ नहीं बोला
क्योंकि मैं मजदूर नही था
फिर वे आये मेरे लिए और कोई नहीं बचा था जो मेरे लिए बोलता…”
क्योंकि मैं यहूदी नहीं था
फिर वे आये कम्यूनिस्टों के लिए और मैं कुछ नहीं बोला,
क्योंकि मैं कम्यूनिस्ट नही था
फिर वे आये मजदूरों के लिए और मैं कुछ नहीं बोला
क्योंकि मैं मजदूर नही था
फिर वे आये मेरे लिए और कोई नहीं बचा था जो मेरे लिए बोलता…”
बात बिल्कुल सीधी सी है. फ़ासिस्ट
ताक़तों को, इस देश को अंध-राष्ट्रवाद
की सुरंग में धकेलने पर आमादा शक्तियों को, कॉरपोरेट की ताकत को ही देश की समृद्धि
की ताकत समझने वाले को, ऐसा करने वालों को, स्त्रियों पर दलितों पर वंचितों पर अल्पसंख्यकों पर हमला करने वालों
को. इस देश को एक ही रंग में रंगने को आतुर खुराफ़ातियों को आप वोट न दें. ये
अजीबोग़रीब गणित है लोकतंत्र का आप वोट न ही दें, ठीक है लेकिन जितने भी वोट
जाएंगें उनमें जिसे ज्यादा मिलेंगे वो जीत जाएगा. इसलिए वीरेन डंगवाल की एक कविता
का स्मरण करके जाना दोस्तों.
उसे ही टॉर्च मान लेना, उसे ही
लालटेन, उसे ही गाइड.
इतने भले नहीं बन जाना साथी
जितने भले हुआ करते हैं सरकस के हाथी
गदहा बनने में लगा दी अपनी सारी कुव्वत सारी प्रतिभा
किसी से कुछ लिया नहीं न किसी को कुछ दिया
ऐसा भी जिया जीवन तो क्या जिया?
जितने भले हुआ करते हैं सरकस के हाथी
गदहा बनने में लगा दी अपनी सारी कुव्वत सारी प्रतिभा
किसी से कुछ लिया नहीं न किसी को कुछ दिया
ऐसा भी जिया जीवन तो क्या जिया?
इतने दुर्गम मत बन जाना
सम्भव ही रह जाय न तुम तक कोई राह बनाना
अपने ऊंचे सन्नाटे में सर धुनते रह गए
लेकिन किंचित भी जीवन का मर्म नहीं जाना
सम्भव ही रह जाय न तुम तक कोई राह बनाना
अपने ऊंचे सन्नाटे में सर धुनते रह गए
लेकिन किंचित भी जीवन का मर्म नहीं जाना
इतने चालू मत हो जाना
सुन-सुन कर हरक़तें तुम्हारी पड़े हमें शरमाना
बग़ल दबी हो बोतल मुँह में जनता का अफ़साना
ऐसे घाघ नहीं हो जाना
सुन-सुन कर हरक़तें तुम्हारी पड़े हमें शरमाना
बग़ल दबी हो बोतल मुँह में जनता का अफ़साना
ऐसे घाघ नहीं हो जाना
ऐसे कठमुल्ले मत बनना
बात नहीं हो मन की तो बस तन जाना
दुनिया देख चुके हो यारो
एक नज़र थोड़ा-सा अपने जीवन पर भी मारो
पोथी-पतरा-ज्ञान-कपट से बहुत बड़ा है मानव
कठमुल्लापन छोड़ो
उस पर भी तो तनिक विचारो
बात नहीं हो मन की तो बस तन जाना
दुनिया देख चुके हो यारो
एक नज़र थोड़ा-सा अपने जीवन पर भी मारो
पोथी-पतरा-ज्ञान-कपट से बहुत बड़ा है मानव
कठमुल्लापन छोड़ो
उस पर भी तो तनिक विचारो
काफ़ी बुरा समय है साथी
गरज रहे हैं घन घमण्ड के नभ की फटती है छाती
अंधकार की सत्ता चिल-बिल चिल-बिल मानव-जीवन
जिस पर बिजली रह-रह अपना चाबुक चमकाती
संस्कृति के दर्पण में ये जो शक्लें हैं मुस्काती
इनकी असल समझना साथी
अपनी समझ बदलना साथी
गरज रहे हैं घन घमण्ड के नभ की फटती है छाती
अंधकार की सत्ता चिल-बिल चिल-बिल मानव-जीवन
जिस पर बिजली रह-रह अपना चाबुक चमकाती
संस्कृति के दर्पण में ये जो शक्लें हैं मुस्काती
इनकी असल समझना साथी
अपनी समझ बदलना साथी
1 comment:
एक बार फिर करते हैं कोशिश अपने को बदलने की उन को बदलना वैसे भी कभी मेरे हाथ में नहीं था ।
Post a Comment