(‘पहल’ - २९, जनवरी १९८६ से साभार)
अफ्रीका के कवि-क्रांतिकारी बेंजामिन मोलाइस को समर्पित ‘पहल’ २९
में कई ज़रूरी चीज़ें छपी हैं. सम्पादकीय में मथुरा के क्रांतिकारी विचारक सत्यभक्त
जी को श्रद्धांजलि दी गयी है और रामविलास शर्मा के हवाले से एकाध उद्धरण दिए गए
हैं. मारकेज़ के साक्षात्कारों की पुस्तक ‘अमरुद की ख़ुशबू’, जिसके कुछेक अध्याय
कबाड़खाने पर नाचीज़ ने जब-तब अनूदित कर लगाए हैं, से एक अंश का विजय कुमार द्वारा
किया गया अनुवाद इस अंक की शान है. निकारागुआ पर मदन कश्यप की कविता है. हरेकृष्ण
झा, प्रमोद कौंसवाल, परमानंद श्रीवास्तव, आग्नेय, बंसी कॉल, रमन मिश्र, पूर्ण
चन्द्र रथ, तेजिंदर, गिविंद माथुर, निशान्त, लालसा लाल तरंग, महावीर अग्रवाल की
कविताओं के अलावा अशोक वाजपेयी के काव्यकर्म पर भृगुनंदन त्रिपाठी का लम्बा आलेख
है. विजयदान देथा का तीसेक पन्ने का प्रेरक आलेख ‘कविता की कहानी’ अंक को
उल्लेखनीय और संग्रहणीय बनाता है. पुस्तक समीक्षा में चन्द्रकान्ता के उपन्यास ‘ऐलान
गली ज़िंदा है’, ‘अजरबैजानी गद्य चयनिका’ और अ. कीरोत्स्काया की पुस्तक ‘भारत के
नगर-एक ऐतिहासिक सिहावलोकन’ को शामिल किया गया है.
कबाड़खाने के पाठकों के लिए इसी अंक से बाबा नागार्जुन की दो कम प्रसिद्ध
कविताएँ-
चौथी पीढ़ी का
प्रतिनिधि
यहाँ, गढ़वाल
में
कोटद्वार-पौड़ी
वाली सड़क पर
ऊपर चक्करदार
मोड़ के निकट
मकई के मोटे
टिक्कड़ को
सतृष्ण नज़रों
से देखता रहेगा अभी
इस चालू मार्ग
पर
गिट्टियां
बिछाने वाली मजदूरिन माँ
अभी एक बजे आयेगी
पसीने से लथपथ
निकटवर्ती
झरने में
हाथ-मुंह
धोएगी
जूड़ा बांधेगी
फिर से
और तब
शिशु को चूम
कर
पास बैठा लगी
मकई के टिक्कड़
से तनिक-सा
तोड़ कर
बच्चे के मुंह
में डालेगी
उसे गोद में
भरकर
उसकी आँखों
में झाँकेगी
पुतलियों के
अन्दर
अपनी परछाईं देखेगी
पूछेगी मुन्ना
से:
मेरी पुतलियों
में देख तो, क्या है.
वो हंसने
लगेगा ...
माँ की गर्दन
को बांहों में लेगा
तब, उन क्षणों
में
शिशु की
स्वच्छंद पुतलियों में
बस माँ ही
प्रतिविम्बित रहेगी ...
दो-चार पलों
के लिए
सामने वाला टिक्कड़
यों ही धरा
रहेगा ...
हरी मिर्च और
नमक वाली चटनी
अलग ही धरी
होगी
चौथी पीढ़ी का
हमारा वो प्रतिनिधि
बचेंद्रीपाल
का भतीजा है!
मैंने देखा
मैंने देखा:
दो शिखरों के
अंतराल वाले जंगल में
आग लगी है ...
बस हब ऊपर की
मोड़ों से
आगे बढ़ने लगी
सड़क पर
मैंने देखा:
धुआं उठ रहा
घाटी वाले
खंडित-मंडित अन्तरिक्ष
में
मैंने देखा:
आग लगी है
दो शिखरों के
अंतराल वाले जंगल में
मैंने देखा:
शिखरों पर
दस-दस त्रिकूट
हैं
यहाँ-वहाँ पर
चित्र-कूट हैं
दाएं-बाएँ
तलहटियों तक
फैले इनके
जटा-जूट हैं
सूखे झरनों के
निशान हैं
तीन पथों में
बहने वाली
गंगा के महिमा-बखान
हैं
दस झोपड़ियां,
दो मकान हैं
इनकी आभा दमक
रही है
इनका चूना चमक
रहा है
इनके मालिक वे
किसान हैं
जिनके लड़के
मैदानों में
युग की डांट-डपट सहते हैं
दफ़्तर में भी
चुप रहते हैं
[५-५-१९८५]
1 comment:
बहुत सुंदर वाह ।
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