(पिछली क़िस्त से आगे)
लेकिन उस ज़माने में एक विभाजन रेखा थी. फिल्मों में
दो बड़े आदमी थे: मनमोहन देसाई और प्रकाश मेहरा. मैं प्रकाश मेहरा का साथ भी काम कर
रहा था. मैंने उनके लिए ‘खून पसीना’,
‘लावारिस’, और ‘मुकद्दर का सिकंदर’ लिखीं. वह एक दूसरा ही रैकेट था. अब ये दोनों
लोगों में से क्या कहानी है, जो उसकी फिल्म में काम करेगा, इधर नहीं कर सकता, जो उधर करता है, इधर
नहीं कर सकता. लेकिन वे मुझे आदेश नहीं दे सकते थे. “तुम यहाँ काम नहीं कर कर
सकते,” अमिताभ बच्चन ने कहा “मेरे साथ आओ, जहाँ मैं काम करूंगा वहाँ तुम भी
करोगे.” मनमोहन देसाई ने ‘रोटी’ बनाई. तब वे बोले “अब मैं प्रोड्यूसर बनना चाहता
हूँ.” तब उन्होंने ‘अमर अकबर एन्थनी’ बनाई. उसके बाद ‘नसीब’ और ‘कुली’. प्रकाश
मेहरा के यहाँ स्ट्रेट नरेशन्स होते थे जो डायलाग और परफोर्मेंस पर निर्भर करते
थे. प्रकाश मेहरा साब एक अच्छे गीतकार भी थे.
दक्षिण की ओर
एक दिन मैं आर. के. स्टूडियो में शूट कर रहा था,
जितेन्द्र मेरे पास आये और बोले “माफ़ करना लेकिन एक प्रोड्यूसर आपसे दो साल से
मिलना चाह रहा है, लेकिन उसके पास आपसे मिलने की हिम्मत नहीं है.”
तब वह प्रोड्यूसर आया. मैंने पूछा “आपको यह गुमान कब
से हुआ कि मैं एक बड़ा लेखक और आदमी हूँ? मैं एक साधारण इंसान हूँ.”
“नहीं सर, दरअसल मेरा भाई आपसे बात करना चाहता है.”
सो मैंने उसके भाई हनुमंत राव से बात की जो पद्मालय का प्रोड्यूसर होने के साथ ही
एक बड़े दिल वाला अच्छा आदमी निकला. उसने कहा “मैं कन्नड़ से हिन्दी में एक रीमेक
बनाने की सोच रहा हूँ.” उसने मुझे स्क्रिप्ट थमाई.
“मैंने सुना है” मैं बोला “दक्षिण भारत में आप जब
रीमेक बनाते हैं तो आप कदम दर कदम शब्द दर शब्द ओरिजिनल की कॉपी करते हैं. मैं
वैसा नहीं कर सकता. मुझे इसे दुबारा लिखना होगा.”
“आपको जैसा करना हो कीजिये” उसने जवाब दिया.
मैंने वैसा ही किया और पूरी स्क्रिप्ट को रेकॉर्ड
किया. जितेन्द्र वहाँ काम करते थे. हेमा मालिनी वहाँ काम करती थीं. और वह फिल्म थी
‘मेरी आवाज़ सुनो’. उस फिल्म के साथ मैंने दक्षिण भारत में प्रवेश किया. सेंसर
बोर्ड सर फिल्म को कुछ दिक्कतें पेश आईं पर फिल्म पास हो गयी. जब कोई फिल्म बैन की
जाती है उसे अच्छी पब्लिसिटी मिलती है. फिल्म सुपरहिट गयी. मुझे बेस्ट राइटर का
इनाम मिला. इस तरह साउथ में मेरी एंट्री हुई.
तनाव: किरची किरची आईना
अब मैं तीन हिस्सों में बंट गया था – मनमोहन देसाई,
प्रकाश मेहरा और दक्षिण भारत. दक्षिण में लोग समय के बड़े पाबन्द होते हैं. वे आपको
पूरा पैसा देते हैं. सो मैं वहाँ काम कर रहा था. मैं यहाँ भी काम कर रहा था. यही
मेरा जीवन था. लेकिन घर पर हमेशा एक तनाव रहता था, “तुम हमें ज़रा भी समय नहीं दे
रहे.” मैं झोपड़पट्टी से आया था. मैंने अपनी बीवी और बच्चों को फ्लैट्स और बंगले और
सब कुछ दिया था. लेकिन इन सब पर सबसे बड़ी दिक्कत यह थी कि मैं उन्हें समय नहीं दे
पा रहा था. सो दो के बदले अब तीन तीन विभाजन रेखाएं थीं. मनमोहन देसाई और प्रकाश
मेहरा के बीच एक रेखा थी; मनमोहन देसाई, प्रकाश मेहरा और दक्षिण के बीच एक दूसरी
रेखा थी जबकि मनमोहन देसाई, प्रकाश मेहरा और दक्षिण और घर के बीच एक तीसरी. और उस
रेखा का अस्तित्व अब भी है. मैं टुकड़ों में बंट गया था. और अगर रोटी का एक टुकड़ा
हिस्सों में बंट जाए तो उसे दुबारा जोड़कर एक नहीं बनाया जा सकता. ठीक जिस तरह एक
आईना किर्चियों में टूट जाता है, मैं भी बिखर गया था. हालांकि इसका कोई अफ़सोस नहीं
है. मैं जो भी हूँ, वो हूँ. मुझे पता है मैं अब भी मेहनत कर रहा हूँ. मेरे अपने
लोग इस बात को अभी नहीं पहचानते पर एक दिन उन्हें मेरी याद आएगी. मेरे पिताजी
बताया करते थे घर की खुशी, उसकी मोहब्बत और अपनेपन के बारे में ... कुछ बातें मेरे
दादाजी की बाबत. उन्हें अपने परिवार से अलग होना पड़ा था. वही चीज़ें मेरे दादाजी के
साथ घटीं वही पिताजी के साथ. परिवार का सम्बन्ध क्या होता है? परिवार के लिए वह एक
गोंद का काम करता है. अगर वो चीज़ें नहीं हैं तो सब कुछ बिखर जाएगा.
पिता, पुत्र और मुस्लिम समुदाय
मेरे वालिद बहुत लायक इंसान थे. जब मैं अपनी क्लासेज़
ले रहा होता वे वहाँ आया करते थे. शाम को आकर वे मेरे अंतिम पीरियड में बैठा करते
थे. और मैं उनसे पूछता “आप मेरी क्लासेज में क्यों आते हैं?”
वे कहते “सीखने के लिए, उम्र की कोई सीमा नहीं होती.
आप कहीं भी जाकर कुछ भी सीख सकते हैं. मैं तुमसे यह सीख रहा हूँ कि पढ़ाया कैसे
जाए. तुम एक अच्छे अध्यापक हो.”
मेरे पिताजी कहा करते “तुम मुस्लिम समुदाय की सहायता
कर सकते हो – उन्हें पढ़ाकर.”
मैं कहता “मुझे कुछ नहीं आता.”
वे कहते “तुम्हें तो फिल्मों में लिखना भी नहीं आता
था. न तुम्हें नाटक लिखने आते थे. तुम सब सीख सकते हो. तुम्हारे भीतर वह क्षमता
है.”
अपने अंतिम दिनों में वे हॉलैंड चले गए थे जहाँ
उन्होंने अपना शिक्षा संस्थान स्थापित किया जिसमें अरबी, फ़ारसी और उर्दू सिखाई
जाती थी. जब वे अपनी मृत्युशैय्या पर थे उन्होंने मुझसे कहा “तुम्हें याद है न
तुमने मुझसे एक वादा किया था.”
मैंने कहा “मैंने वादा नहीं किया किया था पर मैं
कोशिश करूंगा.”
वे बोले “हाँ, तुम्हें कोशिश करनी चाहिए. अगर
तुम्हारा जैसा आदमी कहता है कि ‘मैं कोशिश करूंगा’ तो उसे वादा की समझना चाहिए. और
तुम्हारी कोशिश वाकई ईमानदार होगी.” फिर उनका इंतकाल हो गया. उनकी मौत के बाद मैं
वाकई अनाथ हो गया.मुझे इच्छा होती है काश वे अभी होते. वे 95 की आयु में मरे. वे
मज़बूत आदमी थे, उन्होंने चश्मा कभी नहीं पहना. उनकी आधी दाढ़ी काली और आधी सफ़ेद थी.
वे टहला करते थे और उनके अपने दांत थे. वे अपनी दिनचर्या का पालन करने वाले मज़बूत
इंसान थे. बहुत मोहब्बत से भरे हुए. उनके छात्र हर धर्म और जाति से थे – मुस्लिम,
हिन्दू, ईसाई, यहूदी. वे सब आकर उनसे सीखते थे. हॉलैंड में भी डच, तुर्क और यहूदी
सब उनके पास आते थे. तो मैं जब भी जाया करता, तो मैं उनकी डायरी में देख सकता था
कि उनसे मुलाक़ात कब हो सकती थी. मैं उनसे मिलने मस्जिद में जाया करता था. वे एक
दोस्त, दार्शनिक, मार्गदर्शक, एक अध्यापक - सब कुछ थे मेरे वास्ते. मैं इस कदर
किस्मतवाला हूँ. मैं जहां भी गया, मेरे लिए अध्यापक हर जगह थे. मनमोहन देसाई मेरे
लिए एक गुरु से कहीं ज़्यादा थे. उन्होंने मुझे कमर्शियल सिनेमा सिखाया. उन्होंने
मुझसे वैसे काम लिया. वे मुझे अपनी गाड़ी से घर छोड़ा करते थे. उस सब को मैं एक
समुन्दर में बदल लिया करता था. प्रकाश मेहरा. दक्षिण के लोग. मेरे लिए भाग्य मेरे
पिता के कारण आया था. लेकिन जब वह माहौल बदलने लगा, और ज्ञान के आसमान का सूरज
डूबने लगा, मैंने खुद से कहा, अब यह सब नहीं चल सकता. और यही वजह है कि मैं यहाँ
बैठा हूँ कि मेरा स्टाफ साहित्य, अरबी, फ़ारसी और उर्दू पर काम कर रहा है. वह जो
ज्ञान मैं मुस्लिम समुदाय को दूंगा, वे अपने धर्म को अच्छी तरह जानना शुरू करेंगे.
वे उसे बेहतर समझने और बरतने का ज्ञान प्राप्त करेंगे.
(जारी)
1 comment:
सुंदर प्रस्तुति ।
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