Monday, July 14, 2014

ग़ालिब ने मुझे स्क्रीनप्लेज की सूरत में आइडियाज़ दिए - कादर ख़ान का एक लंबा साक्षात्कार - 9



लेखन की बाबत

कॉनी हाम – फिल्मों के अपने लेखन के बारे में मुझे कुछ बताइये.

कादर ख़ान – कहानी में उतार चढ़ाव – मनमोहन देसाई उस पर यकीन करते थे. वे मुझे आउटलाइन  दे दिया करते थे जिनके बीच मैंने अपनी पंक्तियाँ फिट करनी होती थीं. और मुझे उनकी इस कमजोरी का पता चल गया था. वे चाहते थे कि डायलॉग्स पर तालियाँ बजें. “तलवार का वार जिसे मार न सके, वो अमर है. आग को जलाकर जो ख़ाक कर डाले वो अकबर है.” तब वे कहते थे “अपुन नईं पब्लिक बोलता है, अनहोनी को जो होनी बना डाल दे, वो एन्थनी है.” इसी तरह के ज़बान पर चढ़ जाने वाले डायलॉग्स. इसी से उन्होंने ‘जॉन, जॉनी जनार्दन’ गाना बनाया था.

तो मुझे मनमोहन देसाई की कमजोरी का पता चल गया था. मैं मनमोहन देसाई को फ्रेम में रखा करता था. उनके घर जाने से पहले ही मुझे उनकी प्रतिक्रिया का पता चल जाता था कि वे मेरी लाइनों पर तालियाँ बजाएंगे या नहीं. वे मेरी ऑडीएन्स थे. और वे ऑडीएन्स की नब्ज़ पकड़ना जानते थे.       

कॉनी हाम मैं आपसे पूछने ही वाली थी कि ऑडीएन्स के बारे में आपकी क्या इमेज थी. सो आपके दिमाग में मनमोहन देसाई रहते थे.

कादर ख़ान – जैसे, मैं नाटक लिखा करता था. मैंने इंटर-कॉलेज ड्रामाटिक प्रतियोगिताएं से शुरू किया था. चौपाटी में भारतीय विद्या भवन के नाम से एक बहुत घटिया नाटक प्रतियोगिता हुआ करती थी. या खुदा, क्या ऑडीएन्स आती थी वहाँ – बेहद खतरनाक. जब भी एक्टर स्टेज पर आता वे कहते थे “आओ.” एक्टर डरने ही वाला होता था जब वे कहते “बैठो” वह बैठ जाया करता. वह फोन का रिसीवर उठता. ऑडीएन्स कहती “हैलो” और यह एक्टर बिना नंबर डायल किये बातें करना शुरू के देता. और तब उसे जुतिया के बाहर कर दिया जाता. तो ऑडीएन्स से मैंने बहुत सारे पाठ सीखे. वह 400 की क्षमता वाला हॉल था. जब मेरा नाटक होता तो 1700 से 1800 लोग आ जाया करते. और मैं उन्हें हर दफ़ा तालियाँ बजाने पर मजबूर कर देता था. मैं उन्हें गैलरी में बैठा देखने की कल्पना किया करता. दस तारीफों के बाद आप ऑडीएन्स को समझ जाते हो. और तब आप उन्हें अपने विचार बताया करते हैं. ऐसा ही लगातार करते जाना होता था. ऑडीएन्स हिल जाया करती थी. उस अनुभव ने मुझे बहुत सिखाया. सो भारतीय विद्या भवन से मैंने अपना फ़ोकस मनमोहन देसाई पर केन्द्रित कर लिया था.     


लेखन और अभिनय के बारे में:

लेखकों ने हमेशा स्केचेज़ बनाने चाहिए. लेखकों ने हमेशा अभिनय करना चाहिए. अधिकतर लेखक रंगमंच से आते हैं. वक्तृता भी अभिनय ही है. जब आप बोलते हैं, आप ऑडीएन्स को जकड़ना शुरू करते हैं. शब्द का चयन, आपकी आवाज़ की लरज़, भावमुद्रा का चयन. यह सब मिलकर अभिनेता को बनाते हैं ... जब हम असल जीवन में झूठ बोल रहे होते हैं हम सब अभिनय करते हैं. उस वक्त हमारे एक्सप्रेशन मेक-अप का काम करते हैं. वह आपके चेहरे को ढांप लेता है.

मंटो के लेखन ने मुझे बहुत प्रेरित किया. मंटो से मैंने यह पाया कि अच्छे ख़याल लाने के लिए आपके पास अच्छे लफ्ज़ होने चाहिए. किसी बड़े आइडिया को नैरेट करने के लिए लोग बड़ी बड़ी शब्दावली का इस्तेमाल करते हैं, जबकि मंटो का मानना था कि आपके आइडिया बड़े होने चाहिए और वाक्य साधारण. और मैंने इसी बात का अनुसरण किया. यही मेरी सफलता का कारण बना. ग़ालिब ने मुझे स्क्रीनप्लेज की सूरत में आइडियाज़ दिए. किसी सीन को लेकर आपके पास कुछ न कुछ कल्पना होनी चाहिए. और वह सब आपको कम शब्दों में बयान कर सकना आना चाहिए. और ये सारे शब्द आपस में जुड़े होने चाहिए ताकि ऑडीएन्स भी उनसे जुड़ी रह सके. अगर आप ऑडीएन्स को अपनी स्क्रिप्ट से बाँध सकते हैं तो आप सफल हैं. यह बांधना ही सबसे मुश्किल होता है.


(जारी)

1 comment:

सुशील कुमार जोशी said...

बढ़िया चल रहा है अगली किश्त का इंतजार है ।