आज़ादी की
सालगिरह!
पन्द्रह
अगस्त
- वीरेन डंगवाल
सुबह
नींद खुलती
तो
कलेजा मुंह के भीतर फड़क रहा होता
ख़ुशी
के मारे
स्कूल
भागता
झंडा
खुलता ठीक ७:४५ पर, फूल झड़ते
जन-गण-मन
भर सीना तना रहता कबूतर की मानिन्द
बड़े
लड़के परेड करते वर्दी पहने शर्माते हुए
मिठाई
मिलती
एक
बार झंझोड़ने पर भी सही वक़्त पर
खुल
न पाया झण्डा, गांठ फंस गई कहीं
हेडमास्टर
जी घबरा गए, गाली देने लगे माली को
लड़कों
ने कहा हेडमास्टर को अब सज़ा मिलेगी
देश
की बेइज़्ज़ती हुई है
स्वतंत्रता
दिवस की परेड देखने जाते सभी
पिताजी
चिपके रहते नए रेडियो से
दिल्ली
का आंखों-देखा हाल सुनने
इस
बीच हम दिन भर
काग़ज़
के झण्डे बनाकर घूमते
बीच
का गोला बना देता भाई परकार से
चौदह
अगस्त भर पन्द्रह अगस्त होती
सोलह
अगस्त भर भी
यार,
काग़ज़ से बनाए जाने कितने झण्डे
खिंचते
भी देखे सिनेमा में
इतने
बड़े हुए मगर छूने को न मिला अभी तक
कभी
असल झण्डा
कपड़े
का बना, हवा में फड़फड़ करने वाला
असल
झण्डा
छूने
तक को न मिला!
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