Monday, December 29, 2014

प्रेम के बीच कुछ होता है हमेशा


मध्यान्तर

-अजंता देव

सफ़ेद होते बालों पर हाथ फिराते
अभी नहीं बाद में
जगर-मगर दुकानों के सामने से
निकल गए सीधे
जैसे यहीं से शुरू होता है हिमालय
इसी जगह से शुरू होनी है तपस्या

मैं पीछे आ रही थी दान की बछिया
जिसके दांत नहीं गिने गए पंद्रह बरस पहले

पंद्रह बरस पहले की यह कहानी
पंद्रह बरस पहले बड़ी सुहानी थी
लगा नहीं कंधे के झोले से 
इतनी नफ़रत निकलेगी
इतनी खीज निकलेगी 
इतनी बीमारी इतना क्रोध निकलेगा पन्द्रह बरस बाद

लेकिन निकले
हमारी सदिच्छाओं के बावजूद
उसकी घृणा मेरे कटुवचन निकले
उसके कुछ साल बेरोजगारी
मेरे कुछ संघर्ष में
उसके कुछ झूठ छिपाने में
मेरे झूठ झेलने में निकले

दरअस्ल माफ़ करें
बात कुछ गड़बड़-सी है
यही कि
प्रेम के बीच कुछ होता है हमेशा
पुराने ज़माने में बेदर्द ज़माना था
अब जो है उसे पकड़ना मुश्किल है
लेकिन कुछ है ज़रूर
जो पंद्रह बरस में 
ख़त्म कर देता है 
खून की लाली
मज़ाक में गाली
ख़त्म कर देता है ख़ुश होने का माद्दा
एक अच्छी-ख़ासी लम्बी कहानी 
ख़त्म कर देता है पंद्रह बरस में

कसी हुई पटकथा की तरह
यह खलनायक अभी भी पहचाना नहीं गया है
शायद कहानी के अंत में
वह मेरे क़दमों में होगा
दया की भीख मांगता
फिलहाल बालों पर हाथ फिराते
नायक के दृश्य पर ही होगा
मध्यान्तर

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