हिन्दी कविता को घटिया कहने से बात नहीं बनने वाली
पहल-97
में छपे प्रियंवद के लेख 'बुत हमको कहें क़ाफ़िर'
जिसे कबाड़खाने ने ‘आज जाने की ज़िद न करो मेहदी हसन’ शीर्षक से पोस्ट किया था, की
प्रतिक्रिया में पहल-98 में दो पत्र छपे हैं.
उनमें से वर्धा से लिखा जीतेंद्र गुप्ता का पहला पत्र कल पोस्ट हुआ था. आज उसी क्रम
में नागपुर से बसंत त्रिपाठी की प्रतिक्रिया पेश है -
आदरणीय प्रियवंद जी,
पहल-97 में आपका दिलचस्प लेख 'बुत हमको कहें काफिर' पढ़ा. बहुत महत्वपूर्ण लेख है.
कम-से-कम गुज़रे बीस-पचीस वर्षों में समाज के भीतर मुसलमान और मुस्लिम बहुल इलाकों
की लगातार सिमटती जगहों को नोटिस में लेते हुए आपने जो विश्लेषण किया है वह हमें
खुद के ही जीवन और परिवेश को कई-कई तरीके से देखने और परखने के लिए बाध्य करता है.
लेख की लयके प्रति आपकी जागरुकता तो देखते ही बनती है. लेख के अंत में आपने
टिप्पणी भी की है - ''रवीन्द्रनाथ, मखदूम,
मजाज़, राही मासूम रजा और फिराक की शाइरी के
कुछ अंश/पद के लिए हैं. उनका उल्लेख लेख में इसलिए नहीं है कि लेख की लय न टूटे.''
वाह...वाह... आपकी इस जागरूकता पर कौन न मर मिटे. अंग्रेजीयत के बोझ
से लदे फंदे विश्लेषण, जिसमें उद्धरणों की बाढ़-सी आई हुई
होती है और 10-12 पृष्ठ के साधारण से लेख में भी 50-100
उद्धरण ठूँस दिए जाते हैं, तब भी आप खुद को
बचा पाए, जबकि आपने कहानी के अलावा इतिहास के अनुशासन में
बंधकर भी काम किया है. लेकिन प्रियंवद जी, लेख की लय को
बचाने के लिए फिक्रमंद थे फिर भी आपने इस महत्वपूर्ण लेख में हिन्दी कविता के
संबंध में डेढ़ पृष्ठ की सामग्री क्षेपक की तरह क्यों जोड़ दी, यह समझ में नहीं आया. विचार था कि इसे छोड़कर अन्य हिस्से पर ध्यान
केन्द्रित करें. लेकिन अब यह अलग अलग मंचों से इतनी बार और इतने इतने तरीकों से
कहा जा रहा है कि लोग इसे सच मानने लगे हैं. हिन्दी समाज का वह हिस्सा, जो इसे नहीं पढ़ता, उसे तो कोई फर्क नहीं पड़ता,
लेकिन यदि कोई पढ़े तो यही कहेगा - देखा मैंने कहा था ना कि हिन्दी
कविता में कोई दम ही नहीं है. इसलिए हिन्दी कविता के संदर्भ में आपने जो लिखा है
उस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करना मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ. और आप यह ध्यान रखें
कि यह मैं हिन्दी का कवि या अध्यापक होने के नाते नहीं बल्कि हिन्दी कविता का एक
पाठक होने के नाते कह रहा हूँ. क्योंकि आपकी बात को सच मान लूँ तो इसका अर्थ यह
होगा कि मैं विगत 20-25 सालों से जिस हिन्दी कविता को पढ़
रहा हूं वह संसार का सबसे निकृष्ट लेखन है. उर्दू कविता से आपका लगाव हो सकता है.
सबकी अपनी राय और पसंदगी होती है. इस पर किसी को ऐतराज करने का कोई अधिकार भी नहीं
है. लेकिन आपने अपनी पसंद को प्रतिमान बनाकर हिन्दी कविता पर जिस ढंग से थोप दिया
है उससे मुझे सख्त ऐतराज है.
आपने चूंकि भाषा और
कविता को लेकर टिप्पणी की है इसलिए मैं उसी को केन्द्र में रखकर अपनी बात रखूंगा.
पहले मैं आपका पक्ष रखूंगा फिर अपना पक्ष.
1. उर्दू
के मुकाबले बनारस के ब्राह्मणों द्वारा एक नकली भाषा गढ़ी गई जो लोक की भाषा कभी
नहीं थी.
जरा हिन्दी के
प्रसिद्ध कवियों की यह सूची बनाएं और देखें कि इसमें बनारस के कवि कितने थे. एक
जयशंकर प्रसाद के अलावा उस दौर में कोई न मिलेगा. और प्रसाद भी थोड़ी देर से
छायावाद में आए. खुद बनारस के रामचन्द्र शुक्ल का छायावाद के प्रति नज़रिया क्या था, यह किसी से छिपा नहीं है. यदि आपकी
मुराद 'नागरी प्रचारिणी सभा, काशी'
से है तो उसका हिन्दी को संस्कृतनिष्ठ बनाने में कितना योगदान है,
यह शोध का विषय है. बाद में भी त्रिलोचन या धूमिल जैसे बनारस के
कवियों ने लोक हिन्दी का प्रयोग किया या संस्कृतनिष्ठ हिन्दी का, इसे कोई भी उनकी कविताएं पढ़कर देख सकता है.
यदि कविता की भाषा
पर नहीं बल्कि हिन्दी भाषा पर ही आरोप लगा रहे हैं कि वह ब्राह्मणों के द्वारा
गढ़ी गई है तो यह और भी ज्यादा अतार्किक और आपत्तिजनक है. हिन्दी भाषा के निर्माण
में बनारस के शुद्धतावादियों का योगदान तो हो सकता है, लेकिन उन्होंने ही इसे गढ़ा है, यह गलत है.
2. छायावाद
से लेकर अज्ञेय के 'तारसप्तक' तक,
हिन्दी कविता की भाषा जन की भाषा थी.
छायावाद के कृत्रिम शब्दों का भारीपन, असंप्रेषणीयता और भाषा के
आवरण को सजाने की सारी चेष्टाएँ हैं, तो पहले 'तारसप्तक' में आयातित विदेशी प्रभाव से आप्लावित
सप्रयास आरोपित जटिलता है.
यह तर्क वही दे सकता
है जो काव्य के इतिहास से अपरिचित है और उसकी सीमितता से क्षुब्ध होकर उसपर हमला
करना चाहता है. छायावाद रोमेंटिक काव्य आंदोलन था. रोमेंटिक काव्य आंदोलन की भाषा
कभी भी ठीक-ठीक जन की भाषा नहीं होती. उपलब्ध भाषा से परे जाकर आधुनिक मनुष्य के
सुख-दुख, जय-पराजय को
सांस्कृतिक रूप से समझना इस आंदोलन का लक्ष्य होता है. हिन्दी को छोडि़ए, बांग्ला,तमिल, तेलुगु या मराठी
के रोमेंटिक दौर की काव्यभाषा क्या ठीक जनभाषा थी? और उसके
पाठकों की स्थिति क्या थी? इस पर विचार कीजिए तो बात समझ में
आ जाएगी. फिर भी छायावाद पंडिताऊ भाषा (संस्कृतनिष्ठ भाषा) तक सीमित थी, यह मानना भूल होगी. छायावाद ने इस सीमा को बार-बार तोड़ा है. लेकिन हमारा
हिन्दी समाज इस मामले में निरपेक्ष और उदासीन बना रहा. यहाँ मैं ज़ोर देकर कहना
चाहूंगा कि पूरे आज़ादी के आंदोलन के दौरान हिन्दी समाज जितना राजनीतिक रूप से
सक्रिय रहा उतना सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से नहीं, प्रयोगवाद
को भी मैं आयातित पश्चिमी प्रभाव नहीं मानता, हालांकि हिन्दी
अध्यापकों का बड़ा वर्ग और संस्कृति के पुरातन पंथी लोग आज भी ऐसा ही मानते हैं.
प्रयोगवाद को अधिक से अधिक इसे कुलीन अभिरुचि कहा जा सकता है.
यदि आग्रह यह हो कि
तुलसी या कबीर की भाषा में ही सारी बातें कही जाएगी या प्रेमचंद की भाषा ही कथा
साहित्य के लिए अचूक है तो बात ही बेमानी हो जाती हैं, आप कह सकते हैं कि इस भाषायी संघर्ष का
जनता की नजर में कोई मूल्य नहीं था (यहाँ जनता की उदासीनता पर भी बात हो सकती है)
लेकिन उसका साहित्य में भी कोई मूल्य नहीं था, यह कहना गलत
है. उर्दू साहित्य के तीन सौ साल के इतिहास में वली दकनी से लेकर कैफी आजमी तक
आपने 15 नाम लिए, यह कहते हुए कि ये
लोगों की जुबान में ज़िन्दा हैं. क्या आपको ये लगता है छायावाद से लेकर अब कोई भी
कवि ऐसा नहीं है जो लोगों की जुबान में ज़िन्दा हो? नाम लेकर
आपने अपना कविता संबंधी आग्रह जता दिया. यह काम मैं नहीं करूँगा. लेकिन इतना जरूर
कहूँगा कि हिन्दी कविता भी लोगों की ज़ुबान पर ज़िन्दा है. यह मैं अपने पाठक के
अनुभव से नहीं अध्यापक के अनुभव से भी कह रहा हूँ. मेरी छात्राएँ ऐसी हैं जो 10
साल पहले कॉलेज छोड़ चुकी हैं और घर-बार भी बसा लिया है. उनमें से
कुछ आज भी आती है. और पढऩे के लिए किताबें मांग कर ले जाती हैं. और बता दूं कि
इसमें कविता की हाल ही की किताबें भी होती हैं. यह संख्या छोटी ज़रूर है लेकिन यह
नहीं कहा जा सकता कि नहीं है. हमको इस पर विचार करना चाहिए कि इस संख्या को बढ़ाने
में हमारे कवियों-विचारकों-चिंतकों-प्रकाशकों-संपादकों-पत्रकारों-राजनीतिज्ञों और
इतर विधा के रचनाकारों ने कितना योगदान दिया. वे तो कविता की काल्पनिक मृत्यु के
विराट उत्सव में डूबे हुए हैं. यदि ऐसा नहीं भी कर रहे तो उदासीन हैं. क्या हिन्दी
समाज की इस कृतघ्नता पर भी कभी बात होगी?
इसमें जो मुख्य
मुद्दा आपकी नजर में है वह काव्य-पंक्तियों के याद रहने का है. हिन्दी कविता के
विरोध में यह बात इतनी बार कही गई है कि लगता है कि याद रह जाना ही कविता की
गुणवत्ता का एकमात्र आधार है. छोटी और गीतात्मक संरचना ही व्यापक रूप में याद रह
सकती है. वैसे तो कविता के अलावा साहित्य की कोई भी विधा शाब्दिक रूप में याद नहीं
रहती तो क्या इसका ये अर्थ हुआ कि वे सारी विधाएं व्यर्थ हैं? स्मरण को केन्द्र में रखकर सस्ते रूमानी
गीतों को श्रेष्ठ माना जाए तो यह कितना तार्किक है?
3. गंगा
जमना के दोआबे में पली बढ़ी यह ज़बान (उर्दू), दुनिया की सबसे
शानदार और जानदार ज़बानों में इसलिए है कि इसे किसी और ने नहीं, दरगाहों, मंदिरों, मस्जिदों,
गलियों, बाज़ारों, मेलों
में गढ़ा है. वली दकनी से शुरू होकर आज तक (कम अज कम पाकिस्तान में) यह बिना
मुरझाए चली आ रही है. (फिर दो शेर उद्धृत करने के बाद कहते हैं) हिन्दी में इस
भाषा को बकायदा कोशिश करके सौ साल पहले खारिज कर दिया गया था.
सौ साल यानी छायावाद
से पहले. भाषा के बारे में सामान्य सी जानकारी रखने वाला व्यक्ति भी यह जानता है
कि भाषा का निर्माण जनता के बीच ही होता है. यदि छायावाद से हिन्दी कविता की भाषा
अभिजात-कुलशील हो गई थी तो फिर निराला और पंत की परवर्ती कविताएं, केदार-नागार्जुन-त्रिलोचन-रामविलास
शर्मा-रांगेय राघव की कविताएं और बाद में समकालीन कविता के पूरे दौर की कविता क्या
ड्राइंग रूम में रची गई कविता लगती है? हिन्दी कविता की
आलोचना में तो कविता की लोकभाषा के पक्ष में बहस की एक लंबी परंपरा है. यदि कोई उस
बहस को ही पढ़ ले तो जान जाएगा कि समकालीन हिन्दी कविता की भाषा में भी लोक का एक
समृद्ध इतिहास है जो आज भी जारी है. फिर खारिज कर देने का कोई मामला ही नहीं है.
आप इस समाज की कुपढ़ जनता से पूछिए कि जब दूसरी भाषाओं की सांस्कृतिक उन्नति हो
रही थी तब वह किसी मोहमाया में उलझी हुई थी? दरअसल हिन्दी
कविता जितनी तेजी से आधुनिक और पुष्ट हुई, समाज उतनी तेजी से
नहीं हुआ. यदि ऐतिहासिक रूप से इस घटना को देखें तो बीसवीं शताब्दी हिन्दी कविता
के लिए महत्वपूर्ण कालखंड है. दूसरी भाषाओं के कवियों को हिन्दी की तुलना में
अपेक्षाकृत एक बना-बनाया और सुसंस्कृत समाज मिला, जिसे
उन्होंने पल्लवित और संवर्धित किया. खड़ी बोली हिन्दी के कवियों को न केवल लोक
भाषाओं के प्रभाव-क्षेत्र में जी रही बहुसंख्यक जनता को हिन्दी के नए रूप के करीब
लाना था बल्कि ब्रज, अवधी, मैथिली और
बुन्देलखण्डी की साहित्यिक विरासत को इस नए भाषायी रूप में रूपांतरित भी करना था.
याद कीजिए उन्नीसवीं शताब्दी का अंतिम और बीसवीं शताब्दी का पहला दशक, जब खड़ी बोली हिन्दी को राष्ट्रभाषाके रूप में स्वीकार किए जाने की मांग
उठने लगी थी लेकिन उसका साहित्य मूलत: उसकी जनपदीय भाषाओं का साहित्य था. कविता की
मुश्किल तो इसलिए भी ज्यादा थी कि उसके जनपदीय रूप में तुलसी, कबीर, सूर, जायसी, मीरा, बिहारी और घनानंद जैसे महान और बहु-प्रशंसित
कवि थे. खड़ी बोली हिन्दी कविता के कुल सौ-सवा सौ साल के इतिहास में जो इतने सारे
आंदोलन और इतनी धाराएँ दिखाई पड़ती है उसकी तह में यही बात है. इस तरह हिन्दी के
कवियों के सामने मुख्य चुनौती बहुसंख्यक हिन्दी समाज को खड़ी बोली हिन्दी के करीब
भी लाना था और भाषा की सृजनशीलता का विकास भी करना था. राजनीतिक, व्यापार और मनोरंजन उद्योग ने उसका व्यावसायिक प्रसार तो किया और उसका
उपयोग मूल्य जानकर उसका दोहन भी किया. लेकिन उसकी सृजनशीलता की ओर आकृष्ट करने में
कोई बड़ा कदम उठाया हो, ऐसा दिखाई नहीं पड़ता. आज़ादी और उसके
बाद के समूचे दौर में हिन्दी कविता की गंभीरता के प्रति उसकी अरूचि साफ दिखाई
पड़ती है. एक छोटा वर्ग ज़रूर एक सीमित दौर में हिन्दी कविता की रचनाशीलता के करीब
आया था, लेकिन कुछ तो कवियों और आलोचकों की लापरवाही,
और कुछ संभ्रांतता की तड़प के कारण वह छिटक गया. हिन्दी समाज में
साहित्य की उपस्थिति को देखते हुए उसकी गुणवत्ता पर सवाल उठाने से पूर्व हिन्दी
समाज के इस सांस्कृतिक और सामाजिक स्तर पर ज़रूर नजर डालना चाहिए.
4. (आपने
पहले कहा कि सभी बड़े नामों ने शुरू में गीत लिखे, बाद में
डरकर छोड़ दिया, उसके बाद लिखते हैं) यह डर बैठाया है बनारस
की तरह वामपंथ के अपने ब्राह्मणों ने, जिन्होंने प्रेम रस,
लय, छंद, कल्पनाशीलता,
गीत को न जाने किन-किन क्रांतिकारी शब्दावलियों के हथियार से
साहित्य और जीवन से बहिष्कृत करके एकांत में ढकेला और उसकी हत्या कर दी. वामपंथ के
प्रचंड तुमुलनाद, शिक्षा व साहित्यिक सत्ता के विभिन्न या कि
समस्त शक्तिकेन्द्रों पर वामपंथियों के नियंत्रण के कारण कविता में रस और लोकभाषा
होने को निरंतर हेय बताया गया. संप्रेषणीयता दुर्गुण और जटिलता प्रगतिशील बन गई.
इस बिन्दु पर कलावादी और वामपंथी एक थे क्योंकि दोनों के प्रेरणास्त्रोत, रचनात्मक उद्वम विदेशों में थे.
आपके क्षेपक का यह
हिस्सा सबसे ज्यादा अतार्किक, गलत तथ्य और अंतविरोधों से भरा हुआ है. इसमें जो मुख्य बात है वह यह कि
वामपंथी कवियों ने ही कविता को सर्वाधिक नुकसान पहुँचाया. मुझे लगता है आप यहां दो
नाम लेना चाहते थे - मुक्तिबोध और नामवरसिंह का. मुक्तिबोध का नाम आपने हिन्दी में
शायद उनकी स्वीकार्यता के कारण नहीं लिया. नामवर सिंह का नाम आपने क्यों नहीं लिया,
यह मैं कह नहीं सकता. हो सकता है कि रामविलास शर्मा आपके जेहन में
हों.
सबसे पहले देखें कि
आपने हिन्दी की जिस जटिल काव्यभाषा का जिक्र किया है वामपंथी रचनाकार और आलोचक
उसके पक्ष में हैं या विरोध में. रामविलास शर्मा, केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन,
त्रिलोचन की ख्याति मुख्यत: वामपंथी कवियों के रूप में है. क्या
इनकी कविताओं की भाषा जटिल या कि पंडिताऊ है? क्या विजेन्द्र,
विष्णुचन्द्र शर्मा, राजेश जोशी, विष्णु नागर, नरेन्द्र जैन, नारिस
अहमद सिकन्दर, केशव तिवारी, हरिओम
राजोरिया की भाषा ऐसी है कि उसे पंडों द्वारा रची पंडिताऊ भाषा कहा जा सकता है?
इनकी भाषा तो मेरी बच्ची भी समझ लेती है जो अभी कुल जमा चौदह की है
(काव्य-संवेदना की गहराई को समझने में भले वह अभी पूरी तौर पर सफल न हो) दूसरी बात,
आप कहते हैं कि वामपंथी कवियों ने ही कविता से प्रेम रस, लय छंद, कल्पनाशीलता, गीत आदि
को क्रांतिकारी शब्दावलियों से बहिष्कृत कर दिया. जिसने केदारनाथ अग्रवाल और शमशेर
को गंभीरता से पढ़ा हो, वह तो ऐसा नहीं, आपका मुझे पता नहीं.
आप खुद अपना
अंतर्विरोध देखें, एक तो आप
छायावाद पर आरोप लगाते हैं कि उसने बनारसी पंडों के प्रबाव में यांत्रिक भाषा गढ़ी,
दूसरी तरफ वामपंथी (शायद आप प्रगतिवादी कहना चाहते थे) कवियों पर यह
आरोप लगाते हैं कि उन्होंने भाषा से रस को बहिष्कृत कर दिया. यदि कविता की भाषा
में जीवन तत्व था ही नहीं तो वह बहिष्कृत कैसे हो गया.
गज़ल और गीतों के
लोकप्रिय होने का कारण उसका गाया जाना भी है. यदि गज़ल ही पूर्ण विधा थी तो शायर
नज़्मों की ओर क्यों गए? क्या
नज़्में भी वैसे ही याद रखी जाती हैं?
वामपंथी कवियों ने
कब कविता में रस और लोकभाषा को हेय दृष्टि से देखा, यह तो मेरी समझ में बिल्कुल नहीं आया. बल्कि यह बहस तो आज
भी हिन्दी आलोचना की माक्र्सवादी धारा के भीतर है. हाँ, कलावादी
जरूर इससे बिदकते हैं और 'बौद्धिक टफनेस' के नाम पर जनभाषा को उथला मानते हैं, मुझे नहीं
मालूम कि वामपंथी रचनाकारों से आपकी मुराद क्या है? यदि कुछ
नाम लेते तो बात ज्यादा तार्किक होती. संप्रेषणीयता को हीनतर कलामूल्य या कि
दुर्गुण मानने वाला वामपंथी नहीं हो सकता. हाँ, इसे ही
एकमात्र प्रतिमान मानकर अपनी कविता में लोकप्रियता के लटके-झटके डालने वाला कवि
कितना कवि रह जाता है, यह सोचने का मुद्दा है. लोकप्रिय और
सहज संप्रेषणीय कवि आज कितने याद किए जाते हैं और उसकी तुलना में प्रसाद, निराला, महादेवी, नागार्जुन,
मुक्तिबोध, केदार, धूमिल
और रघुवीर सहाय कितने याद किए जाते हैं, यह किसी से छिपा तो
नहीं है.
आपके इस क्षेपक से
यह तो पता चला कि आप कविता से प्यार करने वाले हैं और हिन्दी कविता की सीमित
स्वीकार्यता को लेकर दुखी और क्षुब्ध हैं. लेकिन कारणों की तलाश करते हुए आपने जो
निष्कर्ष निकाले हैं वे गलत हैं, मैं यही कह सकता हूं कि आपने लक्षण तो सही पकड़ा लेकिन बीमारी को गलत
डाइग्नोज़ कर दिया. हिन्दी समाज के हीनतर सांस्कृतिक मूल्य, निम्न
दर्जे की रुचिशीलता और उदासीनता को तोडऩे के लिए अब नए सिरे से बात होनी चाहिए,
इसमें कवियों की भूमिका पर भी बात हो. ज़रूरत सांस्कृतिक एक्टिविज़्म
की है. हिन्दी कविता को घटिया कहने से बात नहीं बनने वाली.
उम्मीद है मेरी इस
प्रतिक्रिया को आप रचनात्मक रूप में लेंगे और इन स्थितियों पर विचार अवश्य करेंगे.
बसंत त्रिपाठी
(नागपुर)
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