ये
हैं जनाब अब्दुल कादिर. ढोलकी मढ़ने का काम करते हैं.
यही
जनवरी-फरवरी में साल में एक बार हमारे मोहल्ले का फेरा करते हैं. वो इस वजह से कि होली का मौसम अगले एकाध महीने में आने को होता है और मोहल्ले में हर घर पर बैठकी होली की परम्परा महिलाओं ने तो आज तक कायम रखी हुई है. उसमें होने वाले होली गायन की मशहूर कुमाऊनी बीट "भद्द-भद्द" के लिए यही ढोलकी काम आती है. हमारे घर की ढोलकियां तो चार-पांच बार इस कारनामे को अंजाम देती हैं इतने ही घरों में.
तो आप समझ लें अगर अब्दुल न आएं तो होगा क्या.
“ ... ढोलकी
मढ़वा लो ढोलकी ... ” की पुकार लगाते हुए जब ये इस बार हमारी गली में नमूदार हुए तो हर
साल ही तरह माँ ने उन्हें आँगन में न्यौत लिया.
दो
ढोलकियां मढ़ी गईं. एक पुरानी के बदले नई खरीदी गयी और कुल जमा साढ़े तीन सौ का
ब्यौपार हुआ.
कादिर
साहब की एक टेक हर तीसरे वाक्य में आती थी: “बिना मसाले वाले पूड़े पे इत्ता सा घी चुपड़ के धुप
दिखाते रहना, बांसुरी को मात देगी बांसुरी को! और पूजा करना भजन गाना मन लगा के.”
स्थाई
ठिकाना हल्द्वानी गफूर बस्ती में है. गफूर बस्ती वो जगह है जिसे साहब लोग स्लम
कहकर हिकारत से देखते हैं अमूमन.
वैसे
पैतृक निवास जिला लखीमपुर खीरी में है.
“यहाँ
कैसे आ गए?” – सवाल का जवाब शब्दों से नहीं देते बस पेट पर हाथ लगाते हैं और एक पल आसमान पर निगाह करते हैं. बस.
इधर माँ ने घी चुपड़ कर ढोलकी धूप में धर दी है. गेट से ही वे झिडकते हैं माँ को "अब इत्ता घी पिला दिया बिचारे को!"
झटपट ढोलकी तक पहुँचते है. कुरते की जेब से छोटा तौलिया निकालते हैं. मन की तसल्ली होने तक उसके पूड़े को पोछते हैं और वापस उसका मुंह सूरज की तरफ कर देते हैं जैसे वह मालिश किया हुआ कोई नवजात हो.
"अच्छा बाबूजी. अगले बरस आवेंगे."
“ ... ढोलकी मढ़वा लो ढोलकी ... ”
(इसे भी देखें: जीवन से ग़ायब होते लोग - 1)
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