(यह टिप्पणी नूतन यादव ने अपनी फेसबुक वॉल पर की है जो हमारे समाज के तानेबाने के मूल में धूनी रमाये बैठे दोगलेपन को अनावृत्त करने का एक प्रयास है. सलाम नूतन!)
धर्मगुरु
बाबा राम रहीम की विवादित फिल्म ‘मैसेंजर ऑफ़ गॉड’ पर अंध विशवासों को बढ़ावा देने का आरोप लगाते हुए ‘केन्द्रीय
फिल्म प्रमाणन बोर्ड’ ने प्रमाण पत्र देने से इन्कार कर दिया.और
फिर उसके बाद उसकी अध्यक्ष ने सरकारी दखल के कारण इस्तीफा दे दिया.
मैं यहाँ
अध्यक्ष के इस्तीफे के मुद्दे पर बात नहीं कर रही हूँ. यहाँ बात बात अंधविश्वास और
रुढियों के आधार पर फिल्म को खारिज करने पर की जा रही है. आज तक प्रसारित सभी
धार्मिक फिल्मों का रिकॉर्ड उठा कर देख लीजिये. ऐसी एक भी धार्मिक फिल्म नहीं मिलेगी जो अंधविश्वास और चमत्कारों की चमकदार
रंगीन धूल से ना पुती हो.
अब तक की सबसे हिट धार्मिक फिल्म ‘जय संतोषी माँ’ ने तो आम जीवन में शुक्रवार को व्रत की एक बीमार परंपरा डाल दी थी जिसके चलते हर घर में खट्टा खाने पर अशुभ होने से थर-थर कांपती एक बेचारी और अबला स्त्री दिखने लगी. इसी तरह की फिल्में साईं बाबा आदि पर पहले भी बनती रही है हालांकि उनमें चमत्कार इतने अतिरंजित तरीके से नहीं दिखाए जाते थे.
क्या राम
रहीम उसी परंपरा का पालन करते नहीं दिख रहे या फिर इस बार वे स्क्रीन पर जीवित
देवता बनने और दिखने की भूल का खामियाजा उठा रहे हैं, जिसकी कोई पूर्व परंपरा नहीं
दिखती.
एक बात और
कि भूतों आदि की फिल्में किस वैज्ञानिक आधार पर बनती है ये मेरी समझ से परे की बात
है.मरने के बाद भटकते भूत आत्माओं का पक्ष आज के महान 'भूतिया फिल्मकार' राम गोपाल वर्मा बेहतर तरीके से रख
सकते हैं और शायद वे ये भी स्पष्ट कर सकें कि उनकी फिल्मों का तार्किक आधार किस
तरह फिल्म बोर्ड को ग्राह्य हुआ था. इसके अतिरिक्त उन फिल्मों को भी आड़े हाथों
क्यों नहीं लिया जाता जो यथार्थ से परे जाकर फिल्म बनाते हैं.ऐसी फिल्मों से भी
मानवीय विश्वास गलत तरीके से निर्मित होता है.
नूतन यादव |
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