Wednesday, January 7, 2015

महाराष्ट्र के ट्रेवलिंग टेंट सिनेमा से छवियाँ - अमित मधेशिया

पिछले कोई सात दशकों से फसल कटाई के बाद के मौसम में ग्रामीण महाराष्ट्र की वार्षिक धार्मिक जात्राओं में साथ साथ चलने वाले ट्रेवलिंग टेंट सिनेमा पर अमित मधेशिया के चित्र प्रस्तुत हैं. मेरी मित्र अरुंधती घोष ने कल फेसबुक पर लगाई मधेशिया के चित्रों वाली एक पोस्ट पर की गयी अपनी टिप्पणी में इस सीरीज का ज़िक्र किया था जिसके लिए उन्होंने आर्थिक सहायता भी उपलब्ध करवाई थी. सो इस पोस्ट के लिए थैंक्यू अरुंधती!


भारत की सिनेमा कैपिटल मुम्बई से कुछ सौ किलोमीटर दूर. बड़ी स्क्रीन का आकर्षण हर साल बड़ी संख्या में लोगों को अपने पास बुला लाता है.
 
उद्घाटन स्क्रीनिंग के दिन गाँव में आतिशबाज़ी. 
टेंट सिनेमा का वास्तुशिल्प अपने आप में अनूठा होता है. फोल्डिंग टेंट कभी कभी पुराने और बेकार पड़े फ़िल्म बैनरों से बनाये जाते हैं.
ट्रक के भीतर ही प्रोजेकटर्स रखे जाते हैं और यही जगह प्रिंट्स, टिकट्स, रजिस्टर और दस्तावेज़ सम्हालने के काम आती है. यही प्रोजेक्शन रूम के काम भी आता है. प्रोजेक्श्निस्ट के साथ साथ इसी छोटी सी जगह पर अकाउंटेंट भी अपने लिए जगह बना लेता है.
१९४० के दशक में कुछ स्वप्नदृष्टा व्यापारी, किसान और स्कूली अध्यापक सस्ते दामो पर पुराने विदेशी प्रोजेक्टर खरीद लाये थे. आज भी इन्हीं को कुछ सुधारों के साथ कई जगह काम में लाया जा रहा है. 
मराठी के अलावा बॉलीवुड की फ़िल्में भी दिखाई जाती हैं. 

टेंट सिनेमा मालिकों ने मार्केटिंग स्ट्रेटेजी के क्षेत्र में एक मास्टरस्ट्रोक लगाया है - दो लोगों के बैठने भर लायक एक डिब्बानुमा स्टाल में, जिसे टिकट काउंटर के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता है, फिल्म के किसी कलाकार को भी बिठाया जाता है. टिकट बांटते समय ये कलाकार अपनी एक तस्वीर मुफ़्त बांटा करते हैं जबकि उनके दीदार को लोगों की भीड़ लगी रहती है. इस फोटो में कई मराठी सोशल ड्रामों की लोकप्रिय नायिका दिशा कदम यही काम कर रही हैं.   
सरकारी रोडवेज़ की बसें लोगों को लाने-ले जाने का काम बखूबी करती हैं.
विज्ञापन का एक तरीका यह भी.
फ़िल्में भेजने का तरीका आज भी वही १९४० के दशक वाला है.
फिल्म के प्रिंट्स को दुआ देता एक दरवेश.
नाईट शो की तैयारी.
करीब दो हज़ार लोग पंडाल में समा सकते हैं..










फिल्मों के शोज़ दोपहर से शुरू होकर अगली सुबह छह बजे तक चलते हैं. आखिरी शो सुबह तीन बजे शुरू होता है और यह "पुरुषों के लिए" वाली श्रेणी में होता है जिसमें कभी कभार अर्ध-पोर्नोग्राफिक फ़िल्में दिखाई जाती हैं. ऐसी फ़िल्में कभी कभी दोपहर को भी देखने को मिल जाती हैं. ऐसी ही एक फिल्म को 'स्क्रीन' की उल्टी दिशा में देखता एक लड़का. 
एक टिकट बीस रूपये का आता है.




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