पिछले
कोई सात दशकों से फसल कटाई के बाद के मौसम में ग्रामीण महाराष्ट्र की वार्षिक
धार्मिक जात्राओं में साथ साथ चलने वाले ट्रेवलिंग टेंट सिनेमा पर अमित
मधेशिया के चित्र प्रस्तुत हैं. मेरी मित्र अरुंधती घोष ने कल फेसबुक पर लगाई
मधेशिया के चित्रों वाली एक पोस्ट पर की गयी अपनी टिप्पणी में इस सीरीज का ज़िक्र
किया था जिसके लिए उन्होंने आर्थिक सहायता भी उपलब्ध करवाई थी. सो इस पोस्ट के लिए
थैंक्यू अरुंधती!
भारत की सिनेमा कैपिटल मुम्बई से कुछ सौ किलोमीटर दूर. बड़ी स्क्रीन का आकर्षण हर साल बड़ी संख्या में लोगों को अपने पास बुला लाता है. |
उद्घाटन स्क्रीनिंग के दिन गाँव में आतिशबाज़ी. |
टेंट सिनेमा का वास्तुशिल्प अपने आप में अनूठा होता है. फोल्डिंग टेंट कभी कभी पुराने और बेकार पड़े फ़िल्म बैनरों से बनाये जाते हैं. |
१९४० के दशक में कुछ स्वप्नदृष्टा व्यापारी, किसान और स्कूली अध्यापक सस्ते दामो पर पुराने विदेशी प्रोजेक्टर खरीद लाये थे. आज भी इन्हीं को कुछ सुधारों के साथ कई जगह काम में लाया जा रहा है. |
मराठी के अलावा बॉलीवुड की फ़िल्में भी दिखाई जाती हैं. |
सरकारी रोडवेज़ की बसें लोगों को लाने-ले जाने का काम बखूबी करती हैं. |
विज्ञापन का एक तरीका यह भी. |
फ़िल्में भेजने का तरीका आज भी वही १९४० के दशक वाला है. |
फिल्म के प्रिंट्स को दुआ देता एक दरवेश. |
नाईट शो की तैयारी. |
करीब दो हज़ार लोग पंडाल में समा सकते हैं.. |
एक टिकट बीस रूपये का आता है. |
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