लिबासपुर नहीं है दिल्ली
-प्रशांत चक्रबर्ती
याचकों जैसे उनके कन्धों पर पड़े कम्बल
उकडूं बैठे रहते हैं बंदीगण
बोलते हुए सम्मान, कुटुंब की बाबत
बोलते हुए न्याय की बाबत
बनी रहती है लोगों की आवाजाही
याचकों जैसे उनके कन्धों पर पड़े कम्बल
सुनते जाते हैं बंदीगण
हमारे खच्चरों का क्या किया उन्होंने?
वे सोचते रहते है
ऊपर छत में लगे बल्ब की कौंध का क्या मतलब?
याचकों जैसे उनके कन्धों पर पड़े कम्बल
घूरते हैं बंदीगण
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