दश्त-ए-तन्हाई में
- फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
दश्त-ए-तन्हाई में ऐ जान-ए-जहाँ लरजां हैं
तेरी आवाज़ के साये तेरे होंठों के सराब
दश्त-ए-तन्हाई में दूरी के ख़स-ओ-ख़ाक तले
खिल रहे हैं तेरे पहलू के समन और गुलाब
उठ रही है कहीं क़ुर्बत से तेरी साँस की आँच
अपनी ख़ुश्ब में सुलगती हुई मद्धम-मद्धम
दूर् उफ़क़ पर चमकती हुई क़तरा क़तरा
गिर रही है तेरी दिलदार नज़र की शबनम
उस क़दर प्यार से ऐ जान-ए जहाँ रक्खा है
दिल के रुख़सार पे इस वक़्त तेरी याद ने हाथ
यूँ गुमाँ होता है गर्चे है अभी सुबह-ए-फ़िराक़
ढल गया हिज्र का दिन आ भी गई वस्ल की रात
तेरी आवाज़ के साये तेरे होंठों के सराब
दश्त-ए-तन्हाई में दूरी के ख़स-ओ-ख़ाक तले
खिल रहे हैं तेरे पहलू के समन और गुलाब
उठ रही है कहीं क़ुर्बत से तेरी साँस की आँच
अपनी ख़ुश्ब में सुलगती हुई मद्धम-मद्धम
दूर् उफ़क़ पर चमकती हुई क़तरा क़तरा
गिर रही है तेरी दिलदार नज़र की शबनम
उस क़दर प्यार से ऐ जान-ए जहाँ रक्खा है
दिल के रुख़सार पे इस वक़्त तेरी याद ने हाथ
यूँ गुमाँ होता है गर्चे है अभी सुबह-ए-फ़िराक़
ढल गया हिज्र का दिन आ भी गई वस्ल की रात
(दश्त-ए-तन्हाई - वीरान जंगल में, लरज़ा हैं - कम्पित
हो रहे हैं, सराब - मरीचिका, ख़स-ओ-ख़ाक तले -घास और मिट्टी के कणों के
नीचे, समन - चमेली,
क़ुर्बत - नज़दीकी, उफ़क़ - आकाश, शबनम - ओस, रुख़सार - गाल, गुमाँ - शक)
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फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का जन्म सियालकोट में १९११ में हुआ. शिक्षा दीक्षा लाहौर में हुई जहाँ से १९३४ में उन्होंने एम.ए. की डिग्री हासिल की. पहले वे एक कॉलेज में अंग्रेज़ी के अध्यापक हुए उसके बाद फ़ौज में भरती हो गए. वहां उन्हें लेफ्टिनेंट कर्नल तक का ओहदा मिला और युद्ध की सेवाओं के एवज़ में एम.बी.ई. का तमगा. देश के विभाजन के बाद उन्हें पाकिस्तान टाइम्स का संपादक नियुक्त किया गया. रावलपिन्डी केस में उन्हें जेल की सज़ा काटनी पडी. कालान्तर में उन्होंने एफ्रो-एशियाई लेखक संघ की पत्रिका ‘लोटस’ का लेबनान से सम्पादन किया. १९८४ में वे पाकिस्तान लौटे और उसी साल उनका निधन हो गया. प्रगतिशील लेखक संघ के महत्वपूर्ण साहित्यकारों में उनकी गिनती होती है लेकिन दरअसल वे एक ऐसे शायर हैं जिनके यहाँ संवाद और कला का अनूठा सामंजस्य पाया जाता है. शायरी की उनकी सात किताबें छपीं और उन्हें अनेक सम्मान मिले जिनमें लेनिन शांति पुरुस्कार सबसे महत्वपूर्ण है.
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