हल्द्वानी
के किस्से - 4
जल के
असंख्य नाम होते हैं. मेरे एक परम सखा के भी ऐसे ही असंख्य नाम हैं. कोई तीसेक साल
पहले एक दफा होली के मौसम में उन्होंने बाबा तम्बाकू के टीन के डिब्बे में छेद कर
और उस छेद में से घासलेट में भीगी सुतली को गुजारकर पागल कुत्ते की आवाज़ निकालने
वाली मशीन का आविष्कार किया था. इस मशीन की मदद से वे अपने घर के बाहर से गुजरने
वाले हर आदमी, विशेषतः बूढ़ों के प्रति अपने सीजनल अनुराग का
प्रदर्शन किया करते. अपनी पीठ पीछे अचानक आ धमके पागल कुत्ते की आवाज़ सुनकर बूढ़े
धरती से कोई डेढ़ फुट हवा में उछल जाते थे. भाग्यवान बूढ़े धरती माता की शरण में
पहुँच जाया करते और जो कम भाग्यवान होते उन्हें केवल अपने चेहरे पर आ गए खौफ़-ए-अज़ल
भर से काम चलाना पड़ता था. इसमें मेरे मित्र का और मित्र के अनुसार बूढ़ों का खूब
मनोरंजन होता था. उनका विचार था कि हमारे जीवन में और ख़ासतौर पर रिटायर्ड लोगों के
जीवन में स्वस्थ मनोरंजन की बहुत कमी है. यही उनका स्थाई दर्द था और कुत्ता मशीन
बनाने की प्रेरणा. इस महामना कर्म के एवज़ में उन्हें आसपास के मोहल्ले तक में
सुतली नंगा और उनके शिष्यटोले में सुतली उस्ताद के नामों से संबोधित किये जाने का
एज़ाज़ हासिल हो गया.
जब
हमारे मोहल्ले में पान-बीड़ी की पहली दुकान खुली तो उसका उद्घाटन मेरे इन्हीं मित्र
के हाथों हुआ. हाईस्कूल के इम्तहान में चौथी दफ़ा असफलता मिलने के बाद मेरे एक और
सखा नब्बू डीयर, जिनकी जीवनगाथा मैं फिर कभी लिखूंगा, ने लगातार फेलियर कहे जाने के सुख का मोह त्यागकर इस दुकान को खोला था.
दुकान सरकारी नर्सरी में आई आम की पेटियों से निकली फंटियों और सरकारी नर्सरी के
ही साइनबोर्डों इत्यादि पदार्थों से बनाया गया – इस कार्य
में लगने वाली मेहनत के लिए नर्सरी के चौकीदार को भागीदार बनाने का काम सुतली
उस्ताद ने ही किया था क्योंकि चौकीदार की निगाह में सुतली ही मोहल्ले का इकलौता
शिक्षित और सभ्य इंसान था जो बिना फीस लिए उसके इकलौते बच्चे को पढ़ाया करता था. यह
अलग बात है कि उसका बच्चा सातवीं में दो साल से फेल हो रहा था. उद्घाटन कार्यक्रम
सुतली उस्ताद से ही कराये जाने की शर्त पर ही चौकीदार ने दुकान-निर्माण में योगदान
दिया था.
तो
बिना छत कीनब्बू डीयर की दुकान के उदघाटन की रस्म के तौर पर जब सुतली ने फ़ोकट
कैपिस्टन का पहला सुट्टा खींचा, उनके नाम के आगे सुट्टन की
उपाधि लग ही जानी थी. अगले सात माह तक नब्बू डीयर सुतली को फिरी-फ़ोकट कराता रहा.
शनैः शनैः सुतली ने स्वाध्याय से चरस पीने में पीएचडी हासिल कर ली और इस शोध में
नब्बू डीयर को अपना रिसर्च असिस्टेंट बनाया. सुतली चरस के सेवन से पहले घर पर खाना
भकोस कर आता था जबकि नब्बू डीयर के घर हर बखत फाके चला करते. अंततः जीवन से विरक्त
होकर दुकान को एक रात आग के हवाले कर नब्बू डीयर संन्यासी बन गया अर्थात घर से भाग
गया. कोई कहता वह गोपेश्वर चला गया है कोई कहता उसने मुरादाबाद में एक्सपोर्ट का
काम शुरू कर दिया है. नब्बू की अम्मा अलबत्ता कुछ नहीं कहती थी, पुत्र के नाम का ज़िक्र चलते ही अपनी आँखों के कोरों पर अपनी मैली धोती
चिपका लेती. नब्बू-पलायन प्रकरण के बाद चरस ठूंसने की समर ट्रेनिंग कर रहे नए
छोकरों की निगाह में सुतली ईश्वर हुआ चाहते थे. नब्बू की जली हुई दुकान के खंडहरों
पर बड़े बड़े पत्थरों की सुरक्षित आड़ में उन्होंने एक मंदिर का निर्माण किया जिसे सुट्टन
चरस के आस्ताने के नाम से ख्याति मिली.
इस तरह
अच्छे भले जमुनादत्त पुत्र गंगादत्त को पहले सुतली नंगा फिर सुतली उस्ताद और फिर
सुट्टन चरस के नाम दे दिए गए. हमारे देश का इतिहास गवाह है महापुरुषों की सर्जना
ऐसे ही होती रही है.
पढ़ाई
और कामधाम के चक्कर में मेरा हल्द्वानी से सामान बंध तो गया लेकिन मन यहीं रमा
रहा. चिठ्ठी-फोन इत्यादि से मालूम पड़ता था सुतली ने पहले चरस और उसके बाद लकड़ी की
तस्करी में हाथ डाला. इस दूसरे काम ने उसे क्रमशः सुतली लठ्ठ, सुतली फर्री, सुतली जड़िया, सुतली
धरमकाँटा, सुतली लेलेण्ड और सुतली जंगलात जैसे नामों से
विभूषित किया. हल्द्वानी में निर्माण कार्य की धूम मचना शुरू हुई तो पूर्ववर्ती
धंधों में अटैच्ड रिस्क से निजात पाने की नीयत से उसने रेता बजरी की खदानों में
हाथ आज़माया. यहाँ अकूत धन था और सुतली के पास उसे कमाने की कूव्वत. एक बड़ा सा
प्लाट खरीदकर सुतली गौला नदी के उस पार जा बसा और दुनिया उसे सुतली गारा कहने लगी.
सुतली गारा से वापस श्री जमनादत्त पुत्र स्व. श्री गंगादत्त बनने में सुतली ने
सबसे मुफीद हिन्दुस्तानी दांव खेला. ज़मीन का धंधा और जनसेवा. यह दांव भी सदा की
तरह निशाने पर लगा और नियतिचक्र ने सुतली को पहले अमीर आदमी फिर ग्राम प्रधान और
बाद में ब्लॉक सदस्य बनवा दिया. सुतली नाम से उसे लोग अब सामने से नहीं बुलाते थे.
उसमें सुतली के क्रोधित हो जाने का भय था और सुतली अब वह पुराना आविष्कारक भर नहीं
रहा था जो घासलेट में सुतली डुबोकर तम्बाकू के खाली डिब्बे से पागल कुत्ते की आवाज़
निकालता था. सुतली को नागरों और ज़माने ने हल्द्वानी के सबसे संपन्न और आदरणीय
लोगों में प्रतिष्ठित कर दिया था.
मेरा
सुतली से सीधा संपर्क लम्बे समय तक कटा रहा था और हमारे बीच जैसा कि मुहावरे में
कहा जाता है पुल के नीचे से भतेरा पानी बह चुका था. तो कहने का मतलब यह है कि जब
मैंने हल्द्वानी लौटने का फैसला किया तो इससे यह साबित नहीं होता था कि सुतली इतने
सालों से मेरी बाट जोह रहा था. वह मेरी स्मृति के उन गुप्त तहखानों में जा बसा था
जहां खुद मैं भी बहुत मेहनत कर के ही पहुँच सकता था. इसके अलावा यह भी बात थी कि
वह मेरी किसी भी तात्कालिक आवश्यकता का हिस्सा भी नहीं था. हमारे रास्ते अलग हो
चुके थे.
कोई दो
साल पहले घर पर घंटी बजी तो सुतली को आया देख मुझे हैरानी और खुशी दोनों का
मिलाजुला अनुभव हुआ. मैं उसे तकरीबन पच्चीस सालों बाद सशरीर देख रहा था. हाल ही
में स्थानीय अखबार में उसकी एकाधिक बार फ़ोटो मुझे दिखी थी लेकिन वह इतना बदल गया
होगा मुझे उम्मीद न थी. उसने उम्दा काट के कपड़े पहने हुए थे, तनिक मुटा गया था और पहली निगाह में सम्मानीय समझे जाने लायक लग रहा था.
हम गले मिले उसने माँ की खबर पूछी, तीन साल पहले गुज़र गए
पिताजी की फ़ोटो को स्पर्श कर प्रणाम किया. हमने बहुत देर तक अपने मोहल्ले के
नब्बूडीयर युग को याद किया और भरसक नोस्टाल्जिक होते रहे. हमने दिन का खाना भी साथ
खाया. वह लौटने के मूड में नहीं लगता था. धीरे धीरे मेरे बिस्तर पर लुढ़क गया और बाकायदा
दो घंटे सोता रहा.
शाम हो
गयी थी. वह उठकर दो कप चाय सूत चुका था और अब बोतल खोलने का प्लान बना रहा था.
मुझे लगा उसके बच्चे बाहर गए होंगे और उसने समय काटने की नीयत से मेरे घर का रुख
किया होगा. वरना उसका मुझसे क्या काम. मैं अनमना सा उसके साथ बाहर जाने को तैयार
होने लगा तो वह “अभी आया पंडित” कहकर बाहर चला
गया.
“यार आज बच्चों
ने ये दिला दिया है” कहते हुए उसने अचानक कमरे में एंट्री ली
और अपने साथ गाड़ी से निकाल कर लाये झोले के भीतर से चमचमाता लैपटॉप निकालते हुए
कहा. मुझे गश आते-आते बचा.
“कैसा है?”
उसके चेहरे पर किसी महंगी चीज़ पर पैसे खर्च कर देने का कोई भी भाव
नहीं था.
“अच्छा बुरा तो
छोड़ सुतली लेकिन ये बता यार तू इसका करेगा क्या. वो भी इस उमर में.”
“अरे यार पंडित,
पढ़ाई के लिए बेटा दिल्ली भेज रखा है पिछले महीने से. वाइफ भी उसी के
पास है. फोन करता हूँ तो बेटा कहता है पापा फेसबुक किया करो फेसबुक किया करो. वाइफ
कहती है मैं कर लेती हूँ तो तुमसे कैसे नहीं होता फेसबुक. अब हमने बखत में कोई
पढ़ाई कर रखी होती तो करते ना साले फेसबुक ... बाबू ने शादी भी साली एम ए पास से
करा दी हुई यार पंडित. क्या लाटापंथी है साली ...”
चेहरे
पर गोपनीयता का भाव लाते हुए वह फुसफुसाया “मुझे कम्प्यूटर
सिखा दे यार पंडित. मना मती करियो भाई.”
यह
मेरे लिए बहुत ज़्यादा बड़ी डोज़ हो गयी थी सो रात की हत्या करने के लिए पूरी बोतल
निबटाने से बेहतर कोई रास्ता था भी नहीं.
अगले
दिन से मैं सुतली के इस नवीनतम साइबरावातार के चक्करों में लिपझ गया. पहले तो उसे
ढंग से माउस पकड़वाना सिखाने में दिन भर की ऐसी-तैसी हुई फिर वह सीधे पोर्नोग्राफी
डाउनलोड करने के तरीके सीखने पर आ गया. मेरे झिड़कने पर उसने पोर्नोग्राफी का
आइडिया पोस्टपोन कर दिया और ताश के पत्तों वाले खेल में दूसरे ही दिन महारत हासिल
कर ली. वह सुबह दस बजे मेरे दरवाज़े पर होता और गलत नहीं कहूँगा उसकी यह कर्मठताभरी
जिद मुझे अच्छी लगने लगी थी. मैंने अपने भीतर के अध्यापक को झकझोर कर जगाया और जी
जान से सुतली को बिल गेट्स बनाने में जुट गया. दिन भर तल्लीन होकर कम्प्यूटर पर
हाथ साफ़ करने में सन्नद्ध सुतली को देखते मुझे लगने लगा था जैसे इतने सालों में
उसके बारे में सुनी गयी सारी बातों में कोई सच्चाई नहीं थी. उसके फोन भी बहुत कम
आते थे. जो आते भी थे उन्हें वह घर के बाहर जाकर अटैंड करता था और वापस आकर पहले
से अधिक उत्साह से इस नवीं ज्ञान की बारीकियां समझने की कोशिश करता.
चौथे
दिन जब वह ठीकठाक ऑपरेट करने लगा तो मैंने उसे फेसबुक दिखा कर उसका अकाउंट बनवा
दिया.
पांचवे
दिन मुझे बाहर जाना था. सुतली चौबीस घंटों में एक्सपर्ट फेसबुकिया बन चुका था और
उसके फ्रेंड्स में उसके बीवी बच्चों के अलावा मेरी भी एंट्री हो चुकी थी. वह तीसेक
लोगों की लिस्ट में शुमार था.
मेरे
लौटने में कोई तीन सप्ताह लगे. दो एक बार सुतली का फोन आया. लेकिन औपचारिकता वाला
ही. मैं पूछता “फेसबुक कैसा चल रहा है सुतली गुरु?” तो वह मुदित होकर कहता “चीज तो अच्छी बनाई यार
अमरीकावालों ने. कल बेटे ने वाइफ के साथ पिक्चर देखी तो उसकी फ़ोटो देखने को मिल
गयी. सही चीज़ है पंडित यार.”
एक दिन
उसने अपनी सेल्फी अपलोड की. दो घंटे बाद दूसरी. अगले दिन पूरा अल्बम था दो साल
पुरानी गोवा यात्रा का. प्रदेश के मुख्यमंत्री के साथ उसकी एक फ़ोटो पर पैंतालीस
लाइक्स आये. एमएपास बीवी की स्कर्ट वाली फ़ोटो लगाई तो उस पर दो सौ से ऊपर. फ़ोटो
उसने हटा दिया. फ्रेंड लिस्ट में उसे जाननेवाले अब पांच सौ हुआ चाहते थे.
फिर
मैं लौट आया. सुतली अगले छः माह तक नज़र नहीं आया. अखबारों में उसकी नियमित फ़ोटो
लगती. एक दफा उसने नगरपालिका लाइब्रेरी की बदहाली को लेकर इंटरव्यू दिया था तो एक
दफा उसे पुलिस ने शांतिभंग की आशंका में हिरासत में ले लिया था.
फेसबुक
पर उसकी अपडेट्स बेहद बेसिक और भोली होती थीं. उनकी संख्या अलबत्ता अब कम होती जा
रही थी.
“यार पंडित
फेसबुक पे लोगों को टैग कैसे करते हैं?” छः महीने के अंतराल
पर उसका फोन आधी रात के बाद आया. वह बेतरह हंस रहा था और पार्श्व की गूंजें बता
रही थीं कि वह अपनी मंडली के साथ पार्टी कर रहा है.
एक माह
बाद मैंने अखबार में उसकी फ़ोटो देखी. जेल में था सुतली. एसडीम को धमकाने के आरोप
में.
फिर
सुतली बाहर था. सुतली पर मुकदमा चल रहा था. सुतली का बेटा नशेड़ी हो गया था पूना
में उसका इलाज चल रहा था. सुतली ने हमारे मोहल्ले में स्कूल की बिल्डिंग खरीद ली
थी और वह उसे बैंकेट हॉल में बदलने ला रहा था.
सुतली
एक दिन मिल ही गया. एक शादी थी. वह अपने असल चरित्र में था. काला चश्मा, कमर में पिस्तौल वाली चमड़े की पेटी, ००७ नंबर की
लम्बी गाड़ी और चमचों की बरात.
“अरे पंडित गुरु,
क्या हाल!” उसने उत्साहपूर्वक मुझे गले लगाया.
“बस ठीक है यार
सुतली. तू बता कैसा चल रहा है तेरा फेसबुक.”
“अरे छोड़ यार,
तू बता माँ कैसी हैं आजकल? मैं जल्दी आ रहा
हूँ रस-भात खाने. उनके हाथ का स्वाद उस दिन से भूला कौन साला है यार पंडित.”
हमें
तू-तड़ाक करता देख उसके चमचों के चेहरों पर मेरे लिए थोड़ी सी एक्स्टेम्पोर इज्ज़त
भभक आई.
उसकी
गाड़ी के भीतर हम अपना दूसरा पैग खींच रहे थे जब वह अचानक बोला “साली फेसबुक ने जीना हराम कर दिया यार. आधी आधी रात पैन्चो फोन में
टुणुन्ग टुणुन्ग. सुबह हगने जाओ तो साली फोन में टुणुन्ग टुणुन्ग. इसका फ़ोटो देखो
उसकी फ़ोटो देखो. बीजेपी वाले की लाइक करो तो साले कांग्रेसी नाराज़. कांग्रेसी की
लाइक करो बीजेपी वालों की पिछाड़ी में चरस. बेटे ने अलग अपनी साली फ़ोटो लगा लगा के
दिक कर रखा था. साले हाथ भर के हुए नहीं गर्लफ्रेंड के साथ बीयर सूत रहे हैं बाप
के पैसों से. हमें गधा समझा है साला. फेसबुक पे सब दिख जाता है. बड़ी दिक्कत है यार
पंडित. चल खींच ना! एक और ठोकते हैं.”
माह भर
बाद उसका फिर से फोन आया “पंडित यार फेसबुक बंद कैसे करते हैं.”
“अबे हुआ क्या
सुतली बाबू?”
“कुछ नहीं यार.
बड़ी कुत्ती चीज़ है साली. इतना टाइम बर्बाद होता है दिनमान भर. पिछली दीवाली के
टाइम पे दारू पी के साला वो वाइफ के फादर को फ्रेंड रिक्वेस्ट भेज दी एक दिन. उसका
अकाउंट भी वाइफ ने ही बनाया था. वाइफ भी वहीं थी उन दिनों देहरादून. बुड्ढा निकला
रंगीला सायर. रोज़ सुबह से आधी रात तक हर दस मिन्ट में पैन्चो एक सायरी. लाइक करो
तो आफ़त. न करो तो आफ़त. वाइफ अलग नाराज़. आपने पापा की सायरी लाइक नहीं की. अबे
खच्चर हैं साले यार हम कोई. फोन में साली हर बखत टुणुन्ग टुणुन्ग. आज बुड्ढे ने
परिवार की फ़ोटो लगाई हैं. मेरी भी है एक. जेल से बाहर निकलते हमारे जामाता –
ये लिख के टैग किया है साले ने.”
इस
वाकये को साल बीतने आया. कहाँ हो सुतली उस्ताद?
4 comments:
बहुत ही बेहतरीन है कुछ hindi quotes भी पढ़े
hahahahahahaha. superb.. par Ashok Da, laphattu jaisa koi nai.... i miss him a lot in your posts..
अद्भुत...
औपन्यासिक अयाम लिये एक शान्दार कहानी!
@ Hi.. I am Kaivi.Ji. Laphattu to Sadio mai koi ek paida hota hai. Use to hum bhi miss kar rahe hai phichale 3 saal se.
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