हिन्दुस्तानी शास्त्रीय
संगीत के क्षेत्र में पंडित वेंकटेश कुमार का नाम उतना “विख्यात” नहीं है लेकिन
आपको उनके बारे में जानना ही चाहिए. उनके गायन के बारे में इन्डियन एक्सप्रेस ने
कुछ समय पहले एक लेख छापा था जिसका अनुवाद यहाँ आपके लिए पेश किया जा रहा है-
कुछ बरस पहले कलकत्ता में
एक संगीत सभा में, जहाँ पंडित वेंकटेश कुमार का नाम किसी ने भी नहीं सुन रखा था,
यह संकोची गायक बमुश्किल श्रोताओं की तरफ निगाह डाल रहा था और उस राग को अनाउंस
करने में भी उसे संकोच हो रहा था जिसे वह गाने वाला था. दो-एक मिनट के भीतर ही
उसने राग पूरिया के अपने गांधार और निषाद से श्रोतामंडली को बाँध
लिया. विलम्बित का आधा होते होते करीब 2000 के आसपास मौजूद श्रोता जानते थे कि वे
एक दुर्लभ कलाकार से रू- ब-रू थे. स्पष्टतः पंडित वेंकटेश कुमार एक ऐसे संगीतकार
थे जिन्हें उन्होंने सुन चुका होना था, लेकिन सुना नहीं था. हॉल में श्रोताओं के
बीच बांटे गए संगीतकारों का जीवनपरिचय देने वाले ब्रोशर्स को उलटने की परिचित कागज़ी
आवाज़ आने लगी थी.
उसमें श्रोताओं को एक
पैराग्राफ़ का नोट हासिल हुआ. हासिल किये गए इनामात और विदेशी दौरों की सूची गायब
थी जो इस बात का सबूत थी कि कलाकार अभी विख्यात नहीं है. इकलौता परिचित शब्द था –
धारवाड़ – उत्तरी कर्नाटक का वह इलाका जहां पंडित जी का घर है. धारवाड़ ने भारतीय
शास्त्रीय संगीत को गायन की अनेक हस्तियाँ दी हैं जिनमें पंडित भीमसेन जोशी भी
सम्मिलित हैं.
जैसे-जैसे गायन बढ़ता गया,
उनकी गायकी में से भीमसेन जोशी की स्मृतियों ने उभरना शुरू किया – ख़ास तौर पर वह
पौरुष से भरा खारापन और पुकार की स्पष्टता – और संगीत संध्या के समाप्त होते न
होते कलकत्ता वाले कला को लेकर अपनी अति-संवेदनशीलता के चलते तकरीबन पगला चुके थे.
इस कलाकार को पहली बार सुनने वाले हर किसी के मन में यही संशय चल रहा था – पचास पार
का एक आदमी है जो उतना ही अच्छा गा रहा है जितना स्थापित उस्ताद गाया करते हैं लेकिन
उसे कोई जानता तक नहीं. उसकी चर्चा तब क्यों नहीं हुई जब वह उभर रहा था?
कुमारजी हमेशा धारवाड़ में
ही रहे हैं. उनका जन्म लक्ष्मीपुरा में हुआ और 12 की आयु में उन्होंने मिथकीय
ख्याति रखनेवाले संत और बहुमुखी प्रतिभा से सम्पन्न हिन्दुस्तानी संगीतकार पुत्तुराजा
गवई द्वारा संचालित वीरेश्वर पुन्याश्रम में दाखिला लिया. कुमारजी ने अपने मामा की
राय पर यहाँ दाखिला लिया था. मामाजी स्वयं कन्नड़ थियेटर आर्टिस्ट थे. कुमार जी के
पिता एक लोकगायक थे और अपने बेटे के लिए हिन्दुस्तानी वोकल की औपचारिक तालीम का
ख़र्च उठा सकने की स्थिति में नहीं थे. आश्रम में जाकर यह तालीम संभव हुई जहां
उन्होंने गवई महाराज से 11 साल तक सीखा. अंततः उन्होंने अध्यापन शुरू कर दिया जो
वे आज तक कर रहे है – धारवाड़ के यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ़ म्यूजिक में.
(अरुणाभ देब की लिखी और 18 अगस्त 2012 को इन्डियन एक्सप्रेस में छपी रिपोर्ट पर आधारित)
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