Friday, December 11, 2015

गली मीर क़ासिम जान से एक रपट - चाहे है फिर किसी को लबे बाम पर हवस

मिर्ज़ा ग़ालिब की पुण्यतिथि के अवसर पर लिखा गया जनाब आर. वी. स्मिथ का यह पीस 2013 की मार्च में 'द हिन्दू' में शाया हुआ था. 'डेल्ही: अननोन टेल्स ऑफ़ अ सिटी' के लेखक स्मिथ साहब पर एक लंबा लेख जल्द कबाड़खाने में देखिये.
गली क़ासिम जान. फ़ोटो - अभिषेक सिसोदिया
15 फ़रवरी को बसंत पंचमी के दिन पड़ी मिर्ज़ा ग़ालिब की पुण्यतिथि के दिन वैसा उत्साह नहीं दिखा जैसा उनकी जन्मतिथि (27 दिसंबर) को दिखा था.  सुबह जब गली मीर क़ासिम जान पहुंचा तो उनकी हवेली, जिसे अब एक स्मारक में तब्दील कर दिया गया है, के आसपास कुछ ख़ास नज़र नहीं आया. बाहर उनके पोते के साथ अपने बच्चे को मदरसे ले जाने के लिए रिक्शे का इंतज़ार करता एक बूढ़ा खड़ा था. जब मैंने ग़ालिब के बारे में पूछा तो उसने अपनी भवें बुनते हुए कहा - “आप ऐसे शख्स के बारे में बात कर रहे हैं जिसने अपनी समूची ज़िन्दगी में एक भी अच्छी मिसाल पेश नहीं की. उसने अपने दिन रूमानियत से भरी खिलंदड़ी में बिताए जबकि रातें मुशायरों में या शराब पीते हुए और नाचवालियों की सोहबत में. ऐसे मुसलमान को याद रखने की ज़्यादा ज़रुरत नहीं. हालांकि वह एक मस्जिद की बगल में रहता था, वहां वह भूले से ही जाया करता था.” अपना ज्ञान प्रदर्शित करने की नीयत से उन्होंने एक शेर गढ़ते हुए कहा – “मस्ज़िद के ज़ेर से एक घर बना लिया है/ एक बन्दा-ए-कमीना हमसे ख़ुदा है.” अगर एक आदमी अपने आपको ख़ुदा का ऐसा कमीना पड़ोसी समझता था जो दुनिया उसकी बाबत और कुछ कैसे सोच सकती है? मेरी बात सुन लीजिये,  उसके सारे बच्चे पैदा होते ही इस लिए मर गए क्योंकि ख़ुदाई उसके तौर-तरीकों से ख़फ़ा थी.”
हो सकता है बूढ़े मियाँ सनक गए हों पर लालकुआं के एक दुकानदार के ख़याल इससे अधिक बेहतर न थे. “शरीफ़ज़ादे नहीं थे वो वरना इस इलाक़े की हर मस्जिद में उनके नाम की गूँज होती.” नाहरी की एक दुकान पर नाश्ते का इंतज़ार करते एक और बुज़ुर्ग (संभवतः उनकी बहू का मिजाज़ बिगड़ा रहा होगा) ने ग़ालिब का नाम लेते ही ज़मीन पर जोर से अपनी लाठी पटकते हुए अपनी नाक पर लगे चश्मे को गुस्से में ऊपर किया. उनका ख़याल था कि आज की अंग्रेज़ी पढ़ी लिखी सोसाइटी ने उसे कुछ ज़्यादा ही चढ़ा दिया है जबकि दिल्ली ने कहीं बेहतर शायर और रोलमॉडल्स पैदा किये हैं.
बल्लीमारां और आसपास के इलाक़े के लोगों में इस तरह की भावनाएं पाई जाती हैं – जो ज़्यादातर दुकानदार, ठेली लगाने वाले, कारीगर या पेंशनयाफ्ता पुरुष हैं – जिनका समय दिन में पांच दफ़ा नमाज़ अदा करने में बीतता है. बीच-बीच में वे उन दिनों को गिना करते हैं जब उन्हें रमजान के रोज़े रखने होते हैं, ईद-उल-फ़ित्र मनानी होती है और जिसके बाद ईद-उल-ज़ुहा और उससे जुड़े हज का काउंटडाउन शुरू होता है. फिर मुहर्रम के दस दिन जब ताजिये उनके दिमागों पर छाये रहते हैं. प्रार्थना, भोजन और धार्मिक मुबाहसों में उनके दिन कटते हैं चूंकि उन्हें जीवन को “कॉफ़ी की चम्मचों” में नहीं बल्कि धार्मिक चीज़ों  “में गिनने” का काम करना होता है. सो क्या आप उन पर इलज़ाम लगा सकते है कि उनके पास ग़ालिब को लेकर कोई बहुत अच्छे खयालात नहीं हैं, जिन्होंने खुद को 1857 के ग़दर के वक़्त एक अँगरेज़ अफसर के पूछे जाने पर आधा मुसलमान बताया था? “मुसलमान हो” गोर साहिब ने पूछा था. “आधा” ग़ालिब ने जवाब दिया. जब इस बात को समझाए जाने को कहा गया तो शायर बोला “शराब पीता हूँ सूअर नहीं खाता.” अपने असामान्य लम्बे कानों के ऊपर एक शंक्वाकार टोपी लगाए और घिसा हुआ मध्यकालीन चोगा धारे हल्की रंगत वाले, दुबले, दढ़ियल औसत कद के उस हाजिरजवाब आदमी के उत्तर  को सुनकर गोरा अफसर ठठाकर हंसा. उसने ग़ालिब को इस अंदाज़ में चले जाने दिया जैसे कुदरत के उन खब्तियों में से एक को अपने रास्ते से साफ हो जाने दे' रहा हो, जो “मस्जिद में बर्बाद हुए समय की भरपाई के लिए शराबखाने में प्रायश्चित” करने पर यकीन करते हैं.
चित्र द हिन्दू से साभार

जो भी हो, आज भी आप अपनी हवेली से जामा मस्जिद तक टहलने जा रहे ग़ालिब के क़दमों का पीछा कर सकते हैं – हवेली आज़म खान और मंदिर की बगल से जिसके बाद हिन्दू बाहुल्य वाला मोहल्ला शुरू होता है, जहाँ छोले-भटूरे की दुकानों के बीच शादी के कार्ड छापने वालों की दुकानें हैं; स्कूल से घर लौट रहे अध-भुखाने लड़के-लड़कियों की भीड़ ने एक कचौड़ीवाले के ठेले को घेर रखा है जिसका धंधा बढ़िया चल रहा है. स्वीकार करना पड़ेगा कि यहाँ की कचौड़ियाँ चावड़ी बाज़ार में बिकनेवालियों से भी बेहतर हैं.
गुज़िश्ता सालों में इस गली से गुज़रते हुए ग़ालिब अपना रस्ता बनाते मसीता की दुकान पर जाया करते थे, जहाँ ओल्ड टॉम व्हिस्की के तीन पैग पीने से पहले या बाद में वे कबाब खाते. उसके बाद उस सांवली नाचनेवालीके कोठे पर जाया करते जिसने बुढापे में उनका दिल चुरा लिया था. वहां आराम करते हुए कभी-कभार ग़ालिब एकाध भिखारियों को अपनी रचनाएं गाते और भीख मांगते सुना करते. इससे उन्हें इल्हाम होता कि उन्होंने अपनी माशूका की निगाह में थोड़ी ज्यादा इज्ज़त कमा ली होगी. लेकिन कोठे जाने का काम हर रोज़ नहीं होता था. उनकी खस्ताहाली के चलते दिक्कतें भी थीं, जिनकी वजह से एक दफ़ा उन्हें बादशाह के रिश्तेदार मिर्ज़ा इलाही बख्श के महल में पनाह मांगने पर मजबूर होना पड़ा था क्योंकि उनके अपने मकान की छत भारी बारिश में गिर गयी थी. फिर इसके अलावा लालकिले में मुशायरों में जाना होता था (मिर्ज़ा फ़तेहउल्ला बेग के मास्टरपीस दिल्ली की आख़िरी शमा से पहले). विख्यात फ्रेंच विद्वान् और भाषाविद गार्सिन दे टैसी ने 19वीं सदी के उर्दू साहित्य की स्थिति पर अपने सालाना भाषणों में उन सभी को दर्ज किया है. औपचारिक मुशायरों के अलावा मटिया महल में हवेली सद्र में तरही मुशायरे भी हुआ करते थे. कुछ समय पहले तक पत्थर का वह उठा हुआ चबूतरा देखा जा सकता था जिस पर शमा धरी जाती थी ताकि शायर और उसे सुनने आये लोगों के चेहरे रोशन हो सकें.
गली क़ासिम जान में वापस. मेरी मुलाक़ात नज़दीकी राबिया गर्ल्स स्कूल से वापस लौट रही एक लम्बी, गोरी और बेहद खूबसूरत एक लड़की से होती है. वह शर्मीली थी लेकिन जब मैंने उससे ग़ालिब के बारे पूछा तो उसके विचार बाकी बाशिंदों से बेहतर थे. “बहुत लाजवाब थे ग़ालिब मियाँ. उनके शेर तो सुब्हान अल्लाह थे. जी चाहता है बस सुनते जाएं.”
यह टिप्पणी बताती है कि युवा लोग ग़ालिब की बुराई करने की कोई मंशा नहीं रखते. हो सकता है उनमें से कुछ ने उस शाम हवेली में एक शमा रोशन की हो. लेकिन उस दिन को मनाने के लिए बाकायदा कोई आयोजन जैसा नहीं था जब असदुल्लाह बेग खान ग़ालिब उर्फ़ मिर्ज़ा नौशा 143 साल पहले जन्नत के मैदानों में अपने साथियों से जा मिले थे. अलबत्ता यह बात भुत कम लोग जानते हैं कि एक दफ़ा अपने दोस्त हरगोबिन्द तफ्ता को लिखे एक ख़त में उन्होंने इच्छा ज़ाहिर की थी कि उन्हें दिल्ली-आगरा मार्ग पर लाल घोड़े की मूर्ति के नज़दीक दफ़नाया जाए जिसकी बगल में पीर साहब की कब्र थी और जिसे वे हमेशा अपने सलाम भेजा करते थे. अगर वह ख्वाहिश पूरी हो गयी होती तो ग़ालिब के चाहनेवाले उनकी जन्म और मृत्यु की तारीखों को उन्हें गली क़ासिम जान के अलावा ताज के शहर में भी अपनी अकीदत पेश कर रहे होते, जहाँ वे पैदा हुए थे.

लेखक श्री आर. वी. स्मिथ

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