Friday, December 11, 2015

सचमुच स्वर्ग से बनकर आई थी उनकी जोड़ी

बिल ब्राइसन की किताब ‘द लाइफ़ एंड टाइम्स ऑफ़ द थंडरबोल्ट किड’ का एक अंश. अपने माता-पिता को इस तरह शायद ही किसी ने याद किया हो जैसे वे करते हैं.


माँ के काम करने के तरीके में इकलौती खराब बात यह थी घर को चलाने और खासतौर पर डिनर (जो कभी भी उनका मज़बूत पहलू नहीं रहा) के मामले में वे अपने ऊपर ज़्यादा दबाव नहीं लेती थीं. माँ को अक्सर देर हो जाया करती थी और बारगेनिंग करते वक़्त वे सब कुछ भूल जाती थीं. हमने जल्दी ही हर शाम छः बजने में दस मिनट होते ही उनकी बगल में खड़ा रहना सीख लिया क्योंकि ठीक इस वक़्त वे अचानक पीछे वाले दरवाज़े से भीतर जातीं और अवन में कुछ झोंक देतीं और हर शाम अपना स्वागत कर रहे घर के हज़ारों बाकी कामों को निबटाने के उद्देश्य से घर के किसी कोने में अदृश्य हो जातीं. इस चक्कर में वे तकरीबन हमेशा डिनर के बारे में भूल जाया करती थीं. और हमेशा थोड़ी देर हो चुकी होती थी. नियमतः हम जान जाते थे कि खाने का समय हो चुका क्योंकि अवन में विस्फोटित हो रहे आलुओं की आवाजें आना शुरू हो चुकी होती थीं.

अपने घर में हम उस हिस्से को रसोई नहीं कहते थे. उसे बर्न्स यूनिट कहा जाता था.   

"ये थोड़ा जल गया है,” कहती हुई, हर रोज़ खाने के वक़्त माफ़ी जैसी मांगती हुई माँ मीट का एक टुकड़ा प्रस्तुत करती जो किसी चीज़ जैसा दिखाई देता था – शायद किसी अतिप्रिय पालतू जानवर जैसा – जिसे किसी घर में लगी त्रासद आग से निकाला गया हो. “लेकिन मेरे ख़याल से मैंने अधिकतर जला हुआ हिस्सा खुरच दिया था,” वह आगे जोड़ा करती, इस बात को नज़रअंदाज़ करती हुई कि उस खुरचे हुए का हरेक हिस्सा कभी मांस हुआ करता था.

खुशी की बात यह थी कि यह सारा पिताजी के लिए काफ़ी सुविधापूर्ण था. उनकी जीभ केवल दो स्वादों पर रेस्पॉण्ड करती थी – जला हुआ खाना और आइसक्रीम – सो उन्हें हरेक चीज़ अच्छी लगती थी बशर्ते वह पर्याप्त गहरी रंगत वाली हो और आश्चर्यजनक रूप से स्वादिष्ट न हो. उनकी जोड़ी सचमुच स्वर्ग से बनकर आई थी क्योंकि खाने को इस तरह शायद ही किसी ने जलाया हो जैसे माँ जलाती थी और उस खाने को वैसे कभी किसी ने नहीं खाया होगा जैसे मेरे पिताजी ने.

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