रेयाज़ उल हक़ की कविताएं
रेयाज़ की इन कविताओं को काफ़ी पहले यहाँ लग चुकना चाहिए थे. बहरहाल.
रेयाज़ उल हक़ का ब्लॉग 'हाशिया' हिन्दी ब्लॉगिंग के शुरुआती सालों से लगातार सक्रिय रहा है और अपनी करीब दस सालों की अपनी यात्रा में उसने जन पक्षधरता के साथ अडिग प्रतिबद्धता दिखाई है. रेयाज़ ने कोई दो महीना पहले मुझे ये कविताएं कबाड़खाने में पोस्ट करने के लिए भेजी थीं. हमारे देश के वर्तमान पर सधी हुई, संयत और सारगर्भित टिप्पणियाँ इन कविताओं का अंडरस्टेटमेंट भी हैं और उनकी मज़बूत राजनैतिक ताक़त भी.
हंगरी के चित्रकार इमरे आमोस (1907-1943) की कृति डार्क टाइम्स VIII |
1.
सरहद
जो मेरी और तुम्हारी नज़रों के बीच है
भरोसे को नफ़रत में बदलती हुई
जो इसके बीच में है
2.
दर्द
खाई से उठता है
और बेयकीनी के आसमान पर
कातिक की धूप सा उगता है
वह जो पत्थरों की मार
और आग की लपटों से पैदा होता है।
3.
उम्मीद
घास में नए पत्ते आए हैं
तालाब में रिस रहा है नाला
पानी बैठ कर बातें करता है
सूखते सूखते रह गई धान से
बोरों में रह गई दाल को चूहों का खौफ़ है
गुंडे दिल्ली में हैं
और उम्मीद के सिर पर ईनाम है
4.
जो कहा जाता है
अवाम की ज़बान
भूल जाने के बाद
कवि
कविता से मुख़ातिब होता है
5.
जो नहीं कहा जाता
मैंने तुम्हारे लिए फ़िक्र की
कौन होगा
जो मेरी फ़िक्र करेगाॽ
6.
जागना
बुरे सपनों की
एक गहरी नींद है
7.
ताकत और कमजोरी
तुम्हारी हड्डियों तक में जज़्ब है
नफ़रत हमारे खिलाफ़
हम जानते हैं तुम्हारी ताक़त
हम जानते हैं तुम्हारी कमज़ोरी
हमारे खिलाफ नफ़रत
जो तुम्हारी हड्डियों तक में जज़्ब है.
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