वह हमारे लिए बस शब्द छोड़ गया
- मीना कंदासामी
एक दलित छात्र की खुदकुशी बच निकलने की एक अकेले इंसान की
हिकमत नहीं होती, यह उस समाज को शर्मिंदा करने की कार्रवाई
होती है, जो उसके साथ खड़े न रह सका. रोहित वेमुला की मौत
उनके द्वारा जातिवादी, सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ चलाए जा
रहे एक संघर्ष के एक ऐसे उदासी भरे अंजाम के रूप में सामने आई है, जिसका पहले से अंदाजा नहीं लगाया जा सकता था. उन पांच दलित अध्येताओं में
से एक रोहित अपने आखिरी पल तक मजबूती से डटे रहे, जिन्हें
दक्षिणपंथी छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्धी परिषद द्वारा लगाए गए आरोपों पर
हैदराबाद विश्वविद्यालय से निकाल दिया गया था. यहां तक कि मौत की तरफ धकेले जाते
हुए भी रोहित अपने सबसे जुझारू छात्रों की असुरक्षाओं को हमें दिखाते गए, और हमारी शैक्षिक व्यवस्था की असली दशा को भी उजागर किया: दलित छात्रों को
निकालने के दशकों पुराने इतिहास वाला एक वाइस चांसलर, दक्षिणपंथी
हिंदू ताकतों की तरफ से बदला लेने के लिए केंद्रीय मंत्रियों की भागीदारी, पूरी प्रशासनिक मशीनरी का शासक राजनीतिक दलों की कठपुतली बन जाना और
सामाजिक बेपरवाही के त्रासद नतीजे.
इन पांच दलित छात्रों को निकाले जाने से बढ़ कर इसकी कोई कारगर मिसाल नहीं मिल सकती कि जाति व्यवस्था कैसे काम करती है. हालांकि उनके निकाले जाने की वजह से दलित बहुजन छात्र समुदाय के बीच में एकजुटता की भावना मजबूत हुई थी, लेकिन उनको निकाले जाने की कार्रवाई ने खौफनाक बातों की याद दिला दी थी. ठीक मनुस्मृति द्वारा अवर्णों (यानी दलितों) को जातीय दायरों से बाहर रहने के फरमान की तरह ही, इस सजा में ही वे सारे प्रतीक शामिल थे जिनमें जातीय सफाई की अवधारणा छुपी हुई है. शिक्षा अब अनुशासित करनेवाला एक उद्यम बन गई है, जो दलित छात्रों के खिलाफ काम कर रही है: वे लगातार रस्टिकेट कर दिए जाने, हमेशा के लिए निकाल दिए जाने, बदनाम हो जाने या पढ़ाई रुक जाने के खौफ में रहते हैं. एक ऐसे समाज में जहां छात्रों ने उच्च शिक्षण संस्थानों में पहुंचने के अपने अधिकार को आरक्षण की नीतियों की सक्षम बनाने वाली, सुरक्षा देने वाली धारणा के तहत यकीनी बनाने के लिए व्यापक संघर्ष किया है, किसी ने भी इस बात पर रोशनी डालने का साहस नहीं किया है कि इनमें से कितने छात्रों को इसकी इजाजत मिलती है कि वे डिग्री हासिल करके इन संस्थानों से लौटें, और कितनों को पढ़ाई बीच में ही छोड़ देनी पड़ती है और इस तरह वे अवसाद के स्थायी शिकार बन जाते हैं और कितने आखिरकार मौत के अंजाम तक पहुंचते हैं.
इन पांच दलित छात्रों को निकाले जाने से बढ़ कर इसकी कोई कारगर मिसाल नहीं मिल सकती कि जाति व्यवस्था कैसे काम करती है. हालांकि उनके निकाले जाने की वजह से दलित बहुजन छात्र समुदाय के बीच में एकजुटता की भावना मजबूत हुई थी, लेकिन उनको निकाले जाने की कार्रवाई ने खौफनाक बातों की याद दिला दी थी. ठीक मनुस्मृति द्वारा अवर्णों (यानी दलितों) को जातीय दायरों से बाहर रहने के फरमान की तरह ही, इस सजा में ही वे सारे प्रतीक शामिल थे जिनमें जातीय सफाई की अवधारणा छुपी हुई है. शिक्षा अब अनुशासित करनेवाला एक उद्यम बन गई है, जो दलित छात्रों के खिलाफ काम कर रही है: वे लगातार रस्टिकेट कर दिए जाने, हमेशा के लिए निकाल दिए जाने, बदनाम हो जाने या पढ़ाई रुक जाने के खौफ में रहते हैं. एक ऐसे समाज में जहां छात्रों ने उच्च शिक्षण संस्थानों में पहुंचने के अपने अधिकार को आरक्षण की नीतियों की सक्षम बनाने वाली, सुरक्षा देने वाली धारणा के तहत यकीनी बनाने के लिए व्यापक संघर्ष किया है, किसी ने भी इस बात पर रोशनी डालने का साहस नहीं किया है कि इनमें से कितने छात्रों को इसकी इजाजत मिलती है कि वे डिग्री हासिल करके इन संस्थानों से लौटें, और कितनों को पढ़ाई बीच में ही छोड़ देनी पड़ती है और इस तरह वे अवसाद के स्थायी शिकार बन जाते हैं और कितने आखिरकार मौत के अंजाम तक पहुंचते हैं.
रोहित जैसे छात्र
रोहित वेमुला जैसे दलित छात्र एक डॉक्टरल डिग्री के लिए
विश्वविद्यालयों में दाखिल हो पाते हैं, यही उनकी
समझदारी, जिद और जातीय भेदभाव के खिलाफ उनके अथक संघर्ष की
निशानी होती है, वह भेदभाव जो पहले दिन से ही उनको तबाह कर
देने की कोशिश करता है.
जातीय वर्चस्व से भरी हुई पाठ्य पुस्तकें, अलगाव को और भी मजबूत कर देने वाला कॉलेज कैंपसों का माहौल, अपने प्रभुत्वशाली जातीय रुतबे पर गर्व करनेवाले सहपाठी, उनको एक बदतर भविष्य की तरफ धकेलने वाले शिक्षक जो इस तरह उनके नाकाम रहने की अपनी भविष्यवाणी को सच साबित करते हैं – ये सब दलित छात्रों के लिए पार करने के लिहाज से नामुमकिन चुनौतियां हैं. बौद्धिक श्रेष्ठता के विचार में रंगी हुई जाति पर जब अकादमिक दुनिया के दायरों में पर अमल किया जाता है, तो वह जिंदगियों को खा जाने और जानें लेने वाला एक ज़हर बन जाती है. क्लासरूम जाति के खिलाफ प्रतिरोध और उसके खात्मे की जगहें बनने की बजाए उन लोगों की बेकाबू जातीय ताकत की दावेदारी बन जाते हैं जो द्विज होने और ज्ञान के संचरण के पवित्र धागों में यकीन करते हैं और जो अपनी पैदाइश से ही यथास्थिति को कायम रखने को मजबूर हैं.
बहिष्कार के डर से अपनी पहचान छुपाए रखनेवाले उत्पीड़ित पृष्ठभूमियों के उन थोड़े से छात्रों की असली पहचान उजागर होने पर सजा दी जाती है – मिथकीय कर्ण की तरह उन्हें जानलेवा नाकामी का अभिशाप दिया जाता है. अपने बूते उभरनेवाले दलित छात्रों को, जिनकी पहचान सबके सामने पहले से ही जाहिर होती है और जो किंवदंतियों के एकलव्य बन जाते हैं, जिंदा छोड़ दिया जाता है लेकिन उन्हें अपनी कला को अमल में लाने में नाकाम बना दिया जाता है. ऐसा अकेले छात्रों के साथ ही नहीं होता, क्योंकि जातीय सत्ता के इन गलियारों में दलित-बहुजन फैकल्टी भी अलग-थलग कर दिए जाने का सामना करते हैं. इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (आईआईटी), मद्रास में अपनी मां के संघर्ष को मैंने जितने आदर से देखा है, उतनी ही बेचारगी के साथ मैंने इस औरत को टूटते और बिखरते हुए भी देखा है, जिसे मैं प्यार करती हूं. अनुसूचित जातियों/अनुसूचित जनजातियों/अन्य पिछड़ा वर्गों के फैकल्टी मेंबरों का हमारे आईआईटी/भारतीय प्रबंधन संस्थानों और विश्वविद्यालयों में नाम भर का प्रतिनिधित्व इस जातीय भेदभाव को और बढ़ा देता है, क्योंकि इससे मिलती जुलती पृष्ठभूमियों से आने वाले छात्रों को एक ऐसा सहायता देने वाला समूह तक नहीं मिलता, जो उनकी मुश्किलों के बारे में सुन सके या उन्हें सलाह दे सके.
ब्राह्मणवादी प्रोफेसरों के एक इंटरव्यू पैनल के सामने, जिनकी अदावत एक फायरिंग दस्तों की याद दिलाती है, एक छात्र कैसे अपने बूते पर टिका रह सकता या सकती है? ये प्रोफेसर, जिन्होंने एक तरफ हो सकता है कि न्यूक्लियर फिजिक्स में महारत हासिल कर ली हो, लेकिन दूसरे तरफ अपने प्यारे जातीय पूर्वाग्रहों को पालते-पोसते रहते हैं. और ये अकादमिक दुनिया में जातीय आतंकवाद की समस्या के सिर्फ एक पहलू का ही प्रतिनिधित्व करते हैं. जब इसका मेल एबीवीपी जैसे दक्षिणपंथी राजनीतिक छात्र गिरोहों से होता है तो यह एक खतरनाक स्तर तक पहुंच जाता है.
हमारे विश्वविद्यालय आधुनिक कत्लगाह बन गए हैं. सभी दूसरे जंग के मैदानों की तरह, उच्च शिक्षा के संस्थान भी जातीय भेदभाव के साथ साथ दूसरी चीजों में भी महारत हासिल कर रहे हैं. वे छात्राओं और महिला फैकल्टी के यौन उत्पीड़न के लिए बदनाम हो चुके हैं, कहानियां जो दबा दी जाती हैं, कहानियां जिन्हें उन शिकायतकर्ताओं का चरित्र हनन करने के लिए तोड़-मरोड़ दिया जाता है जो विरोध करती हैं, आवाज उठाती हैं और जो अपने साथ धमकी से, मजबूरी से या जबरदस्ती सेक्स करने की किसी भी कोशिश को कारगर नहीं होने देतीं. ठीक जिस तरह से रोहित की खुदकुशी ने चुप्पियों को तोड़ते हुए जाति की हत्यारी पहचान उजागर की है, एक दिन हम उन औरतों की कहानियां भी सुनेंगे, जिन्हें इन एकाकी टापुओं से मौत के समंदर में ले जाया गया.
हमने हैदराबाद विश्वविद्यालय के मामले में जो देखा है वह जातीय श्रेष्ठता और राजनीतिक सहभागिता का खतरनाक मेलजोल है. छात्रों को धमकाने और दबाने में राज्य मशीनरी और खासकर पुलिस बल की भूमिका कैंपसों में दमन के एक पुराने और आजमाए हुए तरीके के रूप में स्थापित हुई है. आईआईटी मद्रास में आंबेडकर पेरियार स्टडी सर्किल की मान्यता खत्म करने के बाद के दिनों में वर्दी वाले मर्द और औरतें कैंपस में हर जगह दिन रात मौजूद रहते थे और इसके दरवाजों की पहरेदारी करते थे. (यह फैसला काफी विरोध के बाद वापस लिया गया था.) अब इसी तरह हैदराबाद कैंपस में हथियारबंद पुलिस की ऐसी ही भारी तैनाती और धारा 144 के तहत कर्फ्यू लगा दिया गया है.
जातीय वर्चस्व से भरी हुई पाठ्य पुस्तकें, अलगाव को और भी मजबूत कर देने वाला कॉलेज कैंपसों का माहौल, अपने प्रभुत्वशाली जातीय रुतबे पर गर्व करनेवाले सहपाठी, उनको एक बदतर भविष्य की तरफ धकेलने वाले शिक्षक जो इस तरह उनके नाकाम रहने की अपनी भविष्यवाणी को सच साबित करते हैं – ये सब दलित छात्रों के लिए पार करने के लिहाज से नामुमकिन चुनौतियां हैं. बौद्धिक श्रेष्ठता के विचार में रंगी हुई जाति पर जब अकादमिक दुनिया के दायरों में पर अमल किया जाता है, तो वह जिंदगियों को खा जाने और जानें लेने वाला एक ज़हर बन जाती है. क्लासरूम जाति के खिलाफ प्रतिरोध और उसके खात्मे की जगहें बनने की बजाए उन लोगों की बेकाबू जातीय ताकत की दावेदारी बन जाते हैं जो द्विज होने और ज्ञान के संचरण के पवित्र धागों में यकीन करते हैं और जो अपनी पैदाइश से ही यथास्थिति को कायम रखने को मजबूर हैं.
बहिष्कार के डर से अपनी पहचान छुपाए रखनेवाले उत्पीड़ित पृष्ठभूमियों के उन थोड़े से छात्रों की असली पहचान उजागर होने पर सजा दी जाती है – मिथकीय कर्ण की तरह उन्हें जानलेवा नाकामी का अभिशाप दिया जाता है. अपने बूते उभरनेवाले दलित छात्रों को, जिनकी पहचान सबके सामने पहले से ही जाहिर होती है और जो किंवदंतियों के एकलव्य बन जाते हैं, जिंदा छोड़ दिया जाता है लेकिन उन्हें अपनी कला को अमल में लाने में नाकाम बना दिया जाता है. ऐसा अकेले छात्रों के साथ ही नहीं होता, क्योंकि जातीय सत्ता के इन गलियारों में दलित-बहुजन फैकल्टी भी अलग-थलग कर दिए जाने का सामना करते हैं. इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (आईआईटी), मद्रास में अपनी मां के संघर्ष को मैंने जितने आदर से देखा है, उतनी ही बेचारगी के साथ मैंने इस औरत को टूटते और बिखरते हुए भी देखा है, जिसे मैं प्यार करती हूं. अनुसूचित जातियों/अनुसूचित जनजातियों/अन्य पिछड़ा वर्गों के फैकल्टी मेंबरों का हमारे आईआईटी/भारतीय प्रबंधन संस्थानों और विश्वविद्यालयों में नाम भर का प्रतिनिधित्व इस जातीय भेदभाव को और बढ़ा देता है, क्योंकि इससे मिलती जुलती पृष्ठभूमियों से आने वाले छात्रों को एक ऐसा सहायता देने वाला समूह तक नहीं मिलता, जो उनकी मुश्किलों के बारे में सुन सके या उन्हें सलाह दे सके.
ब्राह्मणवादी प्रोफेसरों के एक इंटरव्यू पैनल के सामने, जिनकी अदावत एक फायरिंग दस्तों की याद दिलाती है, एक छात्र कैसे अपने बूते पर टिका रह सकता या सकती है? ये प्रोफेसर, जिन्होंने एक तरफ हो सकता है कि न्यूक्लियर फिजिक्स में महारत हासिल कर ली हो, लेकिन दूसरे तरफ अपने प्यारे जातीय पूर्वाग्रहों को पालते-पोसते रहते हैं. और ये अकादमिक दुनिया में जातीय आतंकवाद की समस्या के सिर्फ एक पहलू का ही प्रतिनिधित्व करते हैं. जब इसका मेल एबीवीपी जैसे दक्षिणपंथी राजनीतिक छात्र गिरोहों से होता है तो यह एक खतरनाक स्तर तक पहुंच जाता है.
हमारे विश्वविद्यालय आधुनिक कत्लगाह बन गए हैं. सभी दूसरे जंग के मैदानों की तरह, उच्च शिक्षा के संस्थान भी जातीय भेदभाव के साथ साथ दूसरी चीजों में भी महारत हासिल कर रहे हैं. वे छात्राओं और महिला फैकल्टी के यौन उत्पीड़न के लिए बदनाम हो चुके हैं, कहानियां जो दबा दी जाती हैं, कहानियां जिन्हें उन शिकायतकर्ताओं का चरित्र हनन करने के लिए तोड़-मरोड़ दिया जाता है जो विरोध करती हैं, आवाज उठाती हैं और जो अपने साथ धमकी से, मजबूरी से या जबरदस्ती सेक्स करने की किसी भी कोशिश को कारगर नहीं होने देतीं. ठीक जिस तरह से रोहित की खुदकुशी ने चुप्पियों को तोड़ते हुए जाति की हत्यारी पहचान उजागर की है, एक दिन हम उन औरतों की कहानियां भी सुनेंगे, जिन्हें इन एकाकी टापुओं से मौत के समंदर में ले जाया गया.
हमने हैदराबाद विश्वविद्यालय के मामले में जो देखा है वह जातीय श्रेष्ठता और राजनीतिक सहभागिता का खतरनाक मेलजोल है. छात्रों को धमकाने और दबाने में राज्य मशीनरी और खासकर पुलिस बल की भूमिका कैंपसों में दमन के एक पुराने और आजमाए हुए तरीके के रूप में स्थापित हुई है. आईआईटी मद्रास में आंबेडकर पेरियार स्टडी सर्किल की मान्यता खत्म करने के बाद के दिनों में वर्दी वाले मर्द और औरतें कैंपस में हर जगह दिन रात मौजूद रहते थे और इसके दरवाजों की पहरेदारी करते थे. (यह फैसला काफी विरोध के बाद वापस लिया गया था.) अब इसी तरह हैदराबाद कैंपस में हथियारबंद पुलिस की ऐसी ही भारी तैनाती और धारा 144 के तहत कर्फ्यू लगा दिया गया है.
एक वादा जिस पर अमल करना है
रोहित, तुमने कार्ल सेगान की तरह एक विज्ञान लेखक
बनने का अपना एक सपना अपने पीछे छोड़ा है और हमें सिर्फ अपने शब्दों के साथ अकेला
कर गए हो. अब हमारे हर शब्द में तुम्हारी मौत का वजन है, हर
आंसू में तुम्हारा अधूरा सपना है. हम धमाके को तैयार सितारों का वह समूह बन जाएंगे,
जिसके बारे में तुमने बात की है, वह समूह
जिसकी जबान पर जाति की इस उत्पीड़नकारी व्यवस्था की दास्तान होगी. इस मुल्क के हर
विश्वविद्यालय में, हर कॉलेज में, हर
स्कूल में, हमारे हर नारे में तुम्हारे संघर्ष का जज्बा भरा
होगा. डॉ. आंबेडकर ने जाति को एक ऐसा शैतान बताया है, जो आप
जिधर भी रुख करें आपका रास्ता काटेगा और भारतीय शैक्षिक संस्थानों के अग्रहारों के
भीतर हमारी शारीरिक मौजूदगी में ही जाति के उन्मूलन के संदेश निहित होने चाहिए.
अकादमिक दुनिया पर अपनी दावेदारी ठोकनेवाले एक दलित, एक
शूद्र, एक आदिवासी, एक बहुजन, एक महिला से अपना सामना होने पर हरेक घिनौनी जातीय ताकत को घबराने दो,
उन्हें इसका अहसास होने दो कि हम यहां पर एक ऐसी व्यवस्था का खात्मा
करने आए हैं, जो हमें खत्म करने की पुरजोर कोशिश करती रही है,
कि हम यहां पर उन लोगों के लिए बुरे सपनों की वजह बनने आए हैं,
जिन्होंने हमसे हमारे सपनों को छीनने की हिम्मत की है. उन्हें इसका
अहसास हो जाने दो कि वैदिक दौर, पवित्र ग्रंथों को सुन लेने
वाले शूद्र के कानों में पिघला हुआ सीसा डालने का दौर, वंचित
किए गए ज्ञान को अपनी जबान पर लाने का साहस करने वालों की जबान काट लेने का दौर
बीत चुका है. उन्हें यह समझ लेने दो कि हमने शिक्षित बनने, संघर्ष
करने और संगठित होने के लिए इन गढ़ों-मठों पर धावा बोला है; हम
यहां मरने के लिए नहीं आए हैं. हम सीखने के लिए आए हैं, लेकिन
जाति के शैतानों और उनके कारिंदों को यह बात समझ लेने दो कि हम यहां पर उन्हें एक
ऐसा सबक सिखाने भी आए हैं, जिसे वे कभी भुला नहीं पाएंगे.
[हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्र रोहित वेमुला
की आत्महत्या पर मीना
कंदासामी का लेख. द हिंदू में प्रकाशित मूल अंग्रेजी लेख का हिन्दी अनुवाद रेयाज़ उल हक़ ने किया है और इसे उन्हीं के ब्लॉग
हाशिया से साभार उद्धृत किया गया है.]
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