Monday, February 8, 2016

मजाज़ और मजाज़ - 8

(पिछली क़िस्त से आगे)

“पहली मुलाक़ात को चार-पांच साल गुज़र गए. फिर 1944 में अचानक रेडियो स्टेशन पर मिले. ये वह ज़माना था कि मजाज़ का सितारए-शाइरी डूब चुका था. रेडियो स्टेशन पर कोई मुशायरा था. तमाम शायर तो मौजूद पर आप न जाने कहाँ ग़ायब? शुक्र है कि मुशायरा शुरू होने के पहले लोग उनको समेट लाये और कुर्सी पर टिका दिया. अब हुलिया मुलाहिज़ा हो – मैला चुस्त पायजामा, काँ मैलियों जैसा, उसपर बेतुका सा ओवरकोट, गले में चीकट मफलर और सर पर चायपोशी. वाह! माइक्रोफोन पर आकर न जाने क्या उल-जलूल बकने लगे. कलेजे में आतिश लावे की तरह खौल रहा था. आँखों की पुतलियों को क़रार न था. एक ज़मीन पर तो दूसरी आसमान पर. कभी एक दायें तो दूसरी बाएं कोने में. एक हाथ मशीन की सी रफ़्तार से बालों की एक रेतआलूदा लट को बार-बार कनपटी पर से उठाये जा रहा था और वह बेहयाई से गिरे जा रही थी. अब खुश उलहानी शुरू! अल्लाह जाने क्यों और क्या बकना शुरू कर दिया. बीच-बीच में डांट भींचकर न जाने क्या लेक्चर भी देते जाते थे. टहलते हुए माइक्रोफोन से दूर निकल गए, वापिस लाना पर बिगड़ कर बैठ गए.”

“ये उनके मुंह को क्या हो गया है? क्या दाढ़ में दर्द है?” मैंने शाहिद से पूछा – “नहीं तो, यह तो हमेशा से ही है इसके जबड़े में.” वे बोले. “कोई नहीं, पहले तो कभी भी नहीं था.” मैंने बुरा मानकर कहा और मुझे किसी तरह यकीन न आया कि मजाज़ का जबड़ा हमेशा से ऐसा ही है. यकीनन वह मुझे जलाने के लिए बन रहा है.”

“हम लोग बाहर आये तो मजाज़ से फिर मुठभेड़ हो गयी. अब जो बातों का तूमार बंधा है तो अल्लाह तौबा. मालूम होता था ज्वार की बोरी का मुंह खुल गया और बहर-बहर के दाने निकल रहे हैं. क्या मजाल जो मुहलत मिल और कह सकें कि दिल्ली शहर में तांगे मुश्किल से मिलते हैं, और रात के ग्यारह बजे हैं, अब तो बख्शिए. खैर खुद ही दिल में नेकी आ गयी, बोले – सुबह आऊँगा.

“और सुबह-ही सुबह कोई छः बजे होंगे कि आप उपस्थित और पहले से भी ज्यादा लबरेज़. रातवाली ज्वार की बोरी में मालूम होता था, इस वक़्त तक दाने पिस गए हैं और मुंह से बातें ऐसे निकल रही हैं जैसे किसी ने सूखा सत्तू गालों में भर लिया हो. और चूल्हा फूंकने की मश्क करना चाहता हो. जबड़ा और भी भिंच गया था. बोलते-बोलते गले में फंदा सा पड़ा, माफ़ी मांगकर बोले – ज़रा गला खुश्क हो रहा है. फिर जेब से बोतल निकालकर बोले – कोई ऐसी-वीसी चीज़ नहीं, अर्के-गुलाब है, ज़रा तर कर लूं. दो घूँट लिए, काग लगाया और जेब में वापिस.  फिर रेलगाड़ी अपनी पूरी रफ़्तार से चल पड़ी. वो शराब पीते हैं और हिमाकत की हद तक पीते हैं. पीते वक़्त सिर्फ एक बात का ख़याल रहता है कि जल्द-अज-जल्द पियें और बहुत सी पी लें. नतीजा ये होता है कि हालत ख़राब हो जाती है. ये आग की बारिश जब मुतवातिर मेदे और जिगर पर होती है, तो सेहत का कोई सवाल ही एक सिरे से नहीं रहता. शायद यही वह सबसे शदीदा मर्ज़ है जो जान को लागू हुई, जिसने जिस्म को खोखला कर दिया है और दिमाग पज़मुर्दा हो गया है.

“सवाल करने पर कि भई इतने सवेरे कैसे आ गए, जवाब मिला कि रेडियो स्टेशन से तांगा लेकर उस वक्त से जो चले तो सुबह तक शहर में चक्कर लगा रहे थे. तांगेवाले से कह दिया था कि भैया तेरा जी चाहे जहाँ ले चल. बीच-बीच में लोगों को जगा-जगा कर शर्फे-मुलाक़ात भी बख्शते आ रहे थे.

“फिर अरसे तक कोई ख़बर न मिली. अब जो तीसरी दफा मिली तो देखा कि सूरत ही दूसरी है. मालूम होता है हज़ारों तूफान और रेले गुज़र गए हैं, जैसे न यह शख्स कुछ सुनता है और न सोचता है. किसी शदीद बीमारी के हमले ने बिलकुल सुन्न कर डाला है. चेहरे को गौर से देखकर शुबहा होता है कि शायद इस शख्स को ख़बर तक नहीं कि वप जिंदा है या मर चुका है. खानेवालों के साथ खा लेना, चलते देखकर चल पड़ना, बैठे देखकर बैठ जाना और रुखसत होते देखकर उनके पीछे-पीछे सरक जाना. अदम और वजूद कुछ एक ही जैसा. जिस्म तो मौजूद है मगर आगे सूरत नहीं मिलता कि दूसरे लवाज़मात कहाँ भटक रहे हैं. मुशायरों में खड़ा कर दिया तो हाथ सूखे पत्तों की तरह, आवाज़ गोया कोसों से गिरती-पड़ती चली आ रही है. दाद देते जी डरता है कि कहीं सचमुच स्टेज से नीचे न गिर पड़ें.”

(जारी) 

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