लखनऊ
में रहनेवाले अग्रज, वरिष्ठ पत्रकार-सम्पादक और शानदार व्यक्ति जनाब नवीन जोशी ने हाल
ही में एक लंबी लेखमाला लिखी है. समाज-राजनीति-संस्कृति और ऐसे ही तमाम मुद्दों को बेहद संजीदगी से स्पर्श करती इस ज़रूरी लेखमाला को आपके सम्मुख प्रस्तुत हुए करते मैं
नवीनदा को धन्यवाद कहता हूँ.
विकास की उलटबासियां- 1
जो
जीवन से गायब होता गया
कोई दस-बारह वर्ष पहले लखनऊ की मशहूर लाल बारादरी में स्थित
ललित कला केंद्र में प्रख्यात चित्रकार जतिन दास व्याख्यान दे रहे थे. चित्रकला पर
बोलते-बोलते वे जीवन में आ रहे अजूबे और विसंगत बदलावों और उनके कारण बढ़ रही कला विहीनता
पर बात करने लगे थे. कहने लगे कि अब मकानों की बजाय दस गुणा दस के छोटे-छोटे
दड़बेनुमा फ्लैट बन रहे हैं जिनमें घरों के परम्परागत आंगन नहीं हैं,आंगन में अचार डालती दादी नहीं है. आंगन में लम्बे-लम्बे बाल सुखाती
बहू-बेटी नहीं है. जीवन ऐसे ब्लॉकों में बदल गया है कि कला और सौंदर्यप्रियता खो
गई है. इसलिए आज के जीवन में कला का लोप हो गया है. यह अलग बात है कि आर्कीटेक्चर
से लेकर पहनावे तक में कला और सौंदर्यप्रियता का खूब दिखावा हो रहा है. उस दिन
जतिन दास की इस बात ने मुझे बहुत गहरे उद्वेलित कर दिया था. उन्होंने और भी बातें
कही थीं लेकिन मेरा मन इसी में अटका रहा और “हिंदुस्तान”
का अपना साप्ताहिक कॉलम में मैंने इसी उद्वेलन पर लिखा था- “घरों से गायब होते आंगन का विलाप.”
दिल्ली-मुम्बई जैसे महानगरों में मकानों के ब्लॉकों और
दड़बों में बदलने का क्रम काफी पहले शुरू हो चुका था. उत्तर प्रदेश के नोएडा
और गाजियाबाद में भी बहुत तेजी से अपार्टमेण्ट बनने लगे थे लेकिन अपनी राजधानी
लखनऊ समेत बाकी जिलों में तब भी अपने घर के सपने में एक अदद आंगन और सामने छोड़े गए
दस फुटी लॉन का सपना मौजूद था. आवास विकास परिषद तथा शहरी विकास प्राधिकरणों से
मकान का नक्शा पास कराने के लिए पीछे दस फुट आंगन और सामने थोड़ा लॉन दिखाना जरूरी
होता था. दो मकानों के बीच छोटा-सा गलियारा भी अनिवार्य होता था. लेकिन उस दिन
जतिन दास की बात से व्यथित मन ने जब लखनऊ को उस तरह देखना शुरू किया तो पाया कि ये
आंगन, लॉन और गलियारा बहुत तेजी से गायब हो रहे हैं.
मैं याद करने लगा था कि आंगन
में छोटी-छोटी क्यारियां होती थीं. उनमें फूल खिलते थे. फूलों पर तितलियां मंडराती
थीं और बच्चे उन चंचल, खूबसूरत तितलियों को पकड़ने के
लिए भागते थे. आंगन के नीम के पेड़ पर कोयल कूकती थी और फाख्ते का जोड़ा तिनके-तिनके
बीन कर घोंसले बनाया करता था. गौरैया कमरे के रोशनदान में बसेरा करती थी. आंगन में
अचार पड़ता था और पापड़ सूखते थे. आंगन में मां निश्चिंत होकर बच्चों को छाती का दूध
पिलाती थी और लोरी गुनगुनाती थी. अब दो कमरों की कोठरी में धूप नहीं आती. दादी का
गठिया और बहू के गीले बाल कोठरी की सीलन में टीसते-रिसते रहते हैं.
जीवन से बेदखल प्यारी चीजें:
यह दस-बारह साल पुरानी बात थी. आज? पिछले
एक दशक में लखनऊ ही नहीं प्रदेश के बहुत सारे छोटे-बड़े शहरों में हजारों की संख्या
में ब्लॉकनुमा छोटी कोठरियों वाले अपार्टमेण्ट बन गए. आंगनों वाले मकान तोड़-तोड़ कर
पांच-छह मंजिला या इससे भी ऊंचे अपार्टमेण्ट बन गए. आंगन से जुड़े दैनंदिन जीवन के
तमाम कार्य-व्यापार बंद हो गए, स्पंदन थम गए और देखिए कि पिछले कुछ वर्षों से हम ‘गौरैया
बचाओ दिवस’ मनाने लगे हैं. इस विडम्बना पर 20 मार्च
2010 के अपने कॉलम में मैंने लिखा था- “प्रकृति से, प्रकृति की सुंदर रचनाओं से मनुष्य का साझा अब नहीं रहा. हाते पट गए, पेड़ कट गए, पुराने घर-आंगन तोड़ कर अपार्टमेण्ट
बन गए. एसी, वगैरह ने रोशनदानों की जरूरत खत्म कर दी और
खिड़की-दरवाजे सदा बंद रखने की अनेक मजबूरियां निकल आईं. कीटनाशकों-उर्वरकों ने
कीट-पतंगों और पक्षियों पर रासायनिक हमला बोल दिया. प्रकृति से दूर जाते हमारे
जीवन से बहुत कुछ बाहर चला गया. गौरैया, तितली, वगैरह भी.”
कितनी ज़रूरी और प्यारी चीजें हमारे जीवन से बहुत तेजी से
गायब होती जा रही हैं, ऐसी चीजें जो जीवन को खूबसूरत बनाती थीं, उसे
अर्थ देती थीं, अपने पर्यावरण के साथ तालमेल बनाए रखते
हुए जीना सिखाती थीं. इन सब प्यारी चीजों में हमारी भाषा-बोली, गीत-संगीत, स्वाद और हवा-पानी जिंदा रहते थे और
इनसे हमारी जड़ें हरी रहती थीं. हम, ‘हम’ होते थे. सामूहिक जीवन था हमारा, पड़ोसी से
प्यार और सुख-दुख का नाता. दड़बों की दीवारों में पड़ोसी खो गए. फिर रिश्ते कैसे रह
जाते. अब हम क्या होते जा रहे हैं!
हमारा होना भी अब कितनी चुनौतियों से घिरा है! पेरिस में जब
ग्लोबल वार्मिंग पर डेढ़ सौ से ज्यादा देश माथापच्ची कर रहे थे तब दिल्ली की हवा
में इतना जहर फैला था कि मास्क पहनने की सलाह दी गई. गर्भवती महिलाओं-बच्चों को घर
भीतर दुबके रहने को कहा जा रहा है. चीन की राजधानी बीजिंग मेंखतरनाक ‘स्मॉग’ के कारण रेड अलर्ट घोषित करना पड़ा जिसमें स्कूल-कॉलेज बंद किए गए. उससे पहले सिंगापुर में भी ऐसा ही हुआ. इसके रुकने के कोई आसार नहीं हैं.
जीवन की गति और तथाकथित विकास की दिशा बना ही ऐसी दी गई है. लगता है हमारी गाड़ी
सर्वथा विपरीत दिशा में हाँकी जा रही है और हमारा उसकी गति और दिशा पर कोई
नियंत्रण ही नहीं है.
बाजार ने हर लिए हमारे स्वाद:
पिछले एक दशक पर नजर
डालिए तो कितनी सारी चीजें बदल गई हैं. पूरा जीवन-व्यवहार बदल रहा है और बदलाव की
गति बहुत तेज है. जॉर्ज ऑर्वेल ने अपनी बहुचर्चित पुस्तक ‘उन्नीस
सौ चौरासी’ में ऐसा ही कुछ कहा भी था कि जो परिवर्तन
मेरे बाबा के जीवन में साठ-सत्तर साल में हुआ उससे ज्यादा परिवर्तन मेरे पिता के
जीवन में दस साल में आ गया और उससे बहुत ज़्यादा बदलाव मेरे जीवन में सिर्फ दो-तीन
साल में आ गया. मेरे बेटे के जीवन में पता नहीं यह कैसी उलट-फेर करेगा और कितनी
भयानक रफ्तार से. यह उलट-फेर काफी पहले शुरू हो चुकी है.
हमारे स्वाद का हाल देखिए. चंद हफ्तों के लिए मैगी क्या बंद
हुई, बच्चों का मुंह लटक गया. मां का दूध सूख जाने पर भी ऐसी व्याकुलता नहीं
होती. अब मैगी बाजार में वापस आ रही है तो छोटे बच्चों से लेकर युवा तक आनंदित हैं
और मैगी पार्टी की तस्वीरें सोशल साइट्स पर सगर्व पोस्ट कर रहे हैं.
हमारी पीढ़ी की जमीनी, अपनी माटी की चीजें
बाजार के जादूगरों ने कैसे हर लीं और हमने उन्हें खुशी-खुशी हर ले जाने दिया. नव
उदारीकरण से उपजे तथाकथित विकास की चकाचौंध में हमने देखा ही नहीं कि हम क्या अपना
रहे हैं और क्या हमसे छीना जा रहा है. भारतीय खाने की विविधता और पौष्टिकता की
सर्वत्र चर्चा होती है लेकिन माताओं की शिकायत है कि पराठा-पूरी या दाल-भात-रोटी
सामने रखो तो बच्चे कहने लगते हैं कि ‘कुछ अच्छा’ खिलाओ. कुछ अच्छा माने मैगी, पास्ता, केएफसी, जने क्या-क्या. आज यह हर घर की समस्या
है. क्या त्रासदी है कि स्वदेशी का राग अलापने और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के खिलाफ
झण्डा उठाने वाले बाबा रामदेव अपनी कम्पनी के नूडल्स लेकर बाजार में आ गए हैं. मैगी पर रोक लगने के बाद उन्हें मुनाफे का अच्छा मौका दिखा होगा. मैकरोनी, स्पाघेटी और वर्मिसेली वे पहले से बेच ही रहे हैं. हमला बहुराष्ट्रीय
कम्पनियों का हो या तथाकथित भारतीय आश्रमों का, देसी
स्वाद तो धीरे-धीरे मारे जा रहे हैं.
यह सामाजिक-सांस्कृतिक हमला बड़े शहरों से सीधे गांवों तक
पहुंच गया है. गांवों के मेलों-हाटों-उत्सवों-ब्याह-काजों में सबसे ज्यादा मांग ‘चाऊमीन’ वगैरह की हो रही है. गांवों के साप्ताहिक हाटों में लाल-हरे और जाने
कैसे-कैसे सॉस से सजे ठेले “हाफ और फूल प्लेट चाऊमीन”
के रेट लटकाए सबके आकर्षण का केंद्र बने दिखते हैं. सांस्कृतिक
संध्याओं में लोक गीतों की बजाय फिल्मी धुनों पर ‘लोक-नृत्य’ होते हैं. लोक संगीत और भाषा-बोली का हाल वैसा ही हो गया है जैसा किसी
ढाबे में प्याज-लहसुन का छौंका लगाकर पकाई गई मैगी का हो सकता है.
(क्रमश:)
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