यह ऐसा समय है
-शिवप्रसाद जोशी
मीडिया इतना घिनौना कभी नहीं हुआ था. अखबार,
टीवी से लेकर ऑनलाइन मीडिया और सोशल मीडिया, मोबाइल मीडिया तक हम एक भयंकर
कॉरपोरेटी-फ़ाशीवादी गठजोड़ को साकार होता, ताकतवर होता, हमलावर होता और अपने
आसपास की तमाम अच्छाइयों को सोखता हुआ देख रहे हैं. उन्होंने हमारे भीतर से मनुष्य
को निगल लिया है, ताकती हुई सी ठहरी हुई आंखें हैं, कांपती अंगुलियां हैं और एक
चूर अवस्था का कन्ज्यूमर हमें बना दिया गया है. उन्हें ऐसे ही खोखले हाड़मांस के
पुतले चाहिए थे.
इतिहास चाबुक फटकारता हुआ फिर सामने खड़ा हो
गया है. आज कोई ठीक ठीक विश्वविजेता जैसा हुंकारी नेता नहीं चाहिए, आज जीत ‘प्रक्रिया’
की होगी. पूंजी और धर्म अपने विकटतम रूप में नृत्यरत हैं. जिनके हाथ तालियों के
लिए नहीं उठेंगे, वे चिन्हित होंगे, फिर मारे जाएंगें. व्यवस्था ऐसी हो जाएगी कि
सिस्टम नहीं उन्हें भीड़ मारेगी.
व्हॉट्सऐपीकरण हो गया है नागरिक चेतना का.
विवेक का बहुसंख्यकीकरण हो गया है. विचार और धर्म की अकलियतें अब जैसे भी हो, जाएं. यहां सिर्फ जैजैकार होगी.
फाशीवाद का एक ग्लोबल गांव बन चुका है जिसमें अत्याधुनिक ही नहीं फ्यूचरिस्टिक
सुविधाएं, संसाधन और मालूमात भरी हैं, वहां अब सीधे खड़े हुए लोग नहीं चाहिए, वहां
बच्चे, बूढ़े, औरतें, छात्र नहीं चाहिए. वहां समुदाय और भावनाएं नहीं चाहिए.
अब इस सबके बात, रे ब्रैडबरी के उपन्यास “फ़ैरनहाइट 451” और उस पर बनी त्रूफ़ो
की फिल्म वास्तविक हो जाने वाली है. बड़े पैमाने पर अब किताबों की बारी है, उन्हें
जलाया जाएगा. सारी दिक्कत की जड़ वही हैं. ऐसा उन्हें मालूम था लेकिन अभी तक उस पर
कोई फोक्स्ड काम न हो पाया था, अब एक अभूतपूर्व अग्निकांड की तैयारी है.
वे सोचते हैं प्रतिरोध नया और आयातित है. वे
मिथकीय आख्यानों को भूल जाते हैं सुविधा से. कृष्ण के प्रतिरोध को भूल जाते हैं और
कर्ण के. सीता का प्रतिरोध और द्रौपदी का. वे गार्गी का प्रतिरोध नहीं जानते न नचिकेता
का. उपमन्यु को, न वे यम जानते हैं न नियम. उन्हें सिर्फ भारत माता पता है, जिसकी
एक कृत्रिम छवि के आगे वे नतमस्तक होने का छल करते हैं और फिर समाज पर टूट पड़ते
हैं. समाज के लोगों और स्त्रियों पर. वे सोनी सोरी पर ऐसे ही टूटे, वो महाराष्ट्र
के लातूर में उम्रदराज़ पुलिस सबइंस्पेक्टर युनूस शेख पर टूटे और उन्हें जलील किया.
वे दिल्ली में बिहार के कन्हैया पर टूटे और तमिलनाड में उन्होंने फादर जोस कनुमकोझी
को पीटा और अपमानित किया.
आज स्वतंत्रतावादियों को, उदारवादियों और
लोकतंत्रवादियों के आगे ये ख़तरे आ गए हैं तो इसके पीछे एक विराट वाम बौद्धिक अहंकार
और आलस्य भी है जो उत्तरोत्तर सघन हो रहा है. वे पीछे हटे हुए हैं और जैसा कि
मुहावरा है आड़ लेकर बोल बच रहे हैं. इस अहंकार और आलस्य ने पश्चिम बंगाल में
अकलियत को वोटबैंक माना. इसने अपने समर्थकों को पहले वोटबैंक फिर एक किले में
तब्दील किया और आज जेएनयू का जो हश्र है उसमें इन सत्ता राजनीति के दीवानों की भी
एक भूमिका बनती ही है.
एक छी न्यूज़ बना है. उधर मीडिया पर हमला हुआ.
वकीलों ने मारा. स्वतंत्र विचारो वाले पत्रकार पीटे गए. धमकियां मिली. मार्च हुआ.
उस मार्च में एक नामचीन और गणमान्य पत्रकार दिखे. वे किस मुंह से देशभक्ति के इस
तांडव पर बोलेंगे. क्या आपने इधर खदबदाते गठजोड़ों पर पहले कुछ लिखा या बोला या
रिपोर्ट किया. क्या आप इंतज़ार कर रहे थे एक बार फिर मौत का. समाज में हत्यारे भर
गए, आपने पहले बताने से संकोच क्यों किया. और बताया भी तो इतना संभलसंभल कर इतना
चुनचुन कर क्यों. गोयनका पुरस्कार जैसे इंतजामों में जब कुछ पुरस्कार बंटे तो क्यो
नहीं पत्रकार एकमेक होकर बाहर निकल गए कि इन्हें मिलता है तो हम नहीं लेते.
टीवी मीडिया कवरेज इस समय देश की सबसे बड़ी
दुर्घटना है. अगर आप चंगुल से नहीं निकल सके तो आप लाख छाती पीट लीजिए लाख स्क्रीनी
रुमानियत कर लीजिए, लाख दुहाइयां और लाख उद्धरण दे दीजिए, लाख उन बहसों में दिल्ली
के प्रगतिशील और पत्थर चेहरों वाले शूरवीरों को बुला लीजिए (और इस कोष्ठक को
लगाने के लिए माफ़ कीजिएगाः दिल्ली के जमीनी लोगों को, आंदोलनकारियों और सच्ची वाम
और लोकतांत्रिक उपस्थितियों को नज़रअंदाज़ किया जाता है, वे बहस से दूर किये जाते
हैं, क्योंकि उनमें बड़बोलेपन का आकर्षण नहीं), वो जो आग का गोला लुढ़कता हुआ
आ रहा है वो आपकी झिल्ली और आवरण और सुरक्षाओं के किनारे से नहीं निकल जाएगा, वो
आपको भेदता हुआ निकलेगा और समाज पर गिरेगा.
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