क़तील शिफ़ाई की एक ग़ज़ल –
खुला है झूट का बाज़ार,
आओ सच बोलें
ना हो बला से ख़रीदार, आओ सच बोलें
ना हो बला से ख़रीदार, आओ सच बोलें
सुकूत छाया है इंसानियत की क़दरों पर
यही है मौक़ा इज़हार, आओ सच बोलें
यही है मौक़ा इज़हार, आओ सच बोलें
हमें गवाह बनाया है वक़्त ने अपना
बनाम-ए-अज़मत-ए – किरदार, आओ सच बोलें
बनाम-ए-अज़मत-ए – किरदार, आओ सच बोलें
सुना है वक़्त का हाकिम बड़ा ही मुंसिफ़
है
पुकार कर सर-ए-दरबार, आओ सच बोलें
पुकार कर सर-ए-दरबार, आओ सच बोलें
तमाम शहर में एक भी नहीं मंसूर
कहेंगे क्या रसन-ओ-दार, आओ सच बोलें
कहेंगे क्या रसन-ओ-दार, आओ सच बोलें
जो वस्फ़ हम में नहीं क्यों करें
किसी में तलाश
अगर ज़मीर है बेदार, आओ सच बोलें
अगर ज़मीर है बेदार, आओ सच बोलें
छुपाए से कहीं छुपते हैं दाग़ चेहरों
के
नज़र है आईना-ए-बरदार, आओ सच बोलें
नज़र है आईना-ए-बरदार, आओ सच बोलें
क़तील जिन पे सदा पत्थरों को प्यार
आया
किधर गए वो गुनाहगार, आओ सच बोलें
किधर गए वो गुनाहगार, आओ सच बोलें
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