Wednesday, March 16, 2016

कश्मीरी मजदूर की कहानी - मंटो


मज़दूरी
– सआदत हसन मंटो

लूटखसोट का बाज़ार गर्म था. इस गर्मी में इज़ाफ़ा हो गया जब चारों तरफ़ आग भड़कने लगी. एक आदमी हारमोनियम की पेटी उठाए ख़ुश ख़ुश गाता जा रहा था. “जब तुम ही गए परदेस लगा के ठेस, ओ पीतम प्यारा, दुनिया में कौन हमारा.” एक छोटी उम्र का लड़का झोली में पापड़ों का अंबार डाले भागा जा रहा था, ठोकर लगी तो पापड़ों की एक गड्डी उस की झोली में से गिर पड़ी, लड़का उसे उठाने के लिए झुका तो एक आदमी ने जिसने सर पर सिलाई मशीन उठाई हुई थी, उस से कहा. रहने दिए बेटा! रहने दे. अपने आप ही भुन जाऐंगे.

बाज़ार में धब से एक भरी हुई बोरी गिरी. एक शख़्स ने जल्दी से बढ़कर अपने छुरे से उस का पेट चाक किया. आंतों के बजाय शकर, सफ़ैद दानों वाली शकर उबल कर बाहर निकल आई. लोग जमा हो गए और अपनी झोलियाँ भरने लगे. एक आदमी कुरते के बग़ैर था, उस ने जल्दी से अपना तहबंद खोला वार मुठ्ठियाँ भर भर कर उस में डालने लगा. “हट जाओ, हट जाओ” एक ताँगा ताज़ा-ताज़ा रोग़न शूदा अलमारियों से लदा हुआ गुज़र गया.

ऊंचे मकान की खिड़की में से मलमल का थान फ़ड़फ़ड़ाता हुआ बाहर निकला, शोले की ज़बान ने हौले हौले उसे चाटा. सड़क तक पहुंचा तो राख का ढेर था. “पों पों, पों पों” मोटर के हॉर्न की आवाज़ के साथ दो औरतों की चीख़ें भी थीं.

लोहे का एक सेफ दस पंद्रह आदमीयों ने खींच कर बाहर निकाला और लाठियों की मुदी से उस को खोलना शुरू किया.

दूध के कई टिन दोनों हाथों पर उठाए अपनी थोड़ी से उनको सहारा दिए एक आदमी दूकान से बाहर निकला और आहिस्ता-आहिस्ता बाज़ार में चलने लगा.

बुलंद आवाज़ आई, “आओ लेमोनीड की बोतलें पियो, गर्मी का मौसम है ” गले में मोटर का टावर डाले हुए आदमी ने दो बोतलें लें और शुक्रिया अदा किए बग़ैर चल दिया.

एक आवाज़ आई “कोई आग बुझाने वालों को तो इत्तिला कर दे , सारा माल जल जाएगा.” किसी ने इस मश्वरे की तरफ़ तवज्जा ना दी, लूट खसूट का बाज़ार इसी तरह गर्म रहा और इस गर्मी में चारों तरफ़ भड़कने वाली आग बदस्तूर इज़ाफ़ा करती रही. बहुत देर के बाद तड़-तड़ की आवाज़ आई. गोलियां चलने लगीं. पुलिस को बाज़ार ख़ाली नज़र आया, लेकिन दूर धोईं में मलफ़ूफ़ मोड़ के पास एक आदमी का साया दिखाई दिया. पुलिस के सिपाही सीटियाँ बजाते उस की तरफ़ लपके. साया तेज़ी से धोईं  के अंदर घुस गया तो पुलिस के सिपाही भी उस के तआक़ुब में गए. धोईं  का इलाक़ा ख़त्म हुआ तो पुलिस के सिपाहियों ने देखा कि एक कश्मीरी मज़दूर पीठ पर वज़नी बोरी उठाए भागा चला जा रहा है. 

सीटियों के गले ख़ुशक हो गए मगर वो मज़दूर ना रुका. उस की पीठ पर वज़न था. वज़न मामूली नहीं , एक भरी हुई बोरी थी मगर वो यूं दौड़ रहा था जैसे पीठ पर कुछ है ही नहीं.

सिपाही हांपने लगे. एक ने तंग आकर पिस्तौल निकाला और दाग़ दिया. गोली कश्मीरी मज़दूर की पिंडली में लगी. बोरी उस की पीठ से गिर पड़ी, घबरा की उसने अपने पीछे सिपाहियों को देखा. पिंडली से बहते हुए ख़ून की तरफ़ भी उसने ग़ौर किया लेकिन एक ही जेबर से बोरी उठाई और पीठ पर डाल कर फिर भागने लगा. सिपाहियों ने सोचा, “जाने दो, जहन्नुम में जाये ” मगर फिर उन्हों ने उसे पकड़ लिया.

रास्ते में कश्मीरी मज़दूर ने बारहा कहा “हज़रत ! आप मुझे क्यों पकड़ती है , में तो ग़रीब आदमी होती, चावल की एक बोरी लेती, घर में खाती. आप नाहक़ मुझे गोली मारती.” लेकिन उस की एक न सुनी गई.

थाने में कश्मीरी मज़दूर ने अपनी सफ़ाई में बहुत कुछ कहा. “हज़रत! दूसरा लोग बड़ा बड़ा माल उठाती, में तो एक चावल की बोरी लेती. हज़रत! में बहुत ग़रीब होती. हर-रोज़ भात खाती.”

जब वो थक गया तो उस ने अपनी मैली टोपी से माथे का पसीना पोंछा और चावलों की बोरी की तरफ़ हसरत भरी निगाहों से देखकर थानेदार के आगे हाथ फैला कर कहा. “अच्छा हज़रत! तुम बोरी अपने पास रख. मैं अपनी मज़दूरी माँगती, चार आने…”

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