नैनीताल में
रहने वाले वरिष्ठ पत्रकार प्रयाग पाण्डे का होली पर लिखा एक आलेख आपने कुछ दिन
पहले कबाड़खाने में पढ़ा था. आज पढ़िए उनकी कलम से उत्तराखंड राज्य का ताज़ा राजनैतिक
हाल -
उत्तराखंड
के नेताओं की सत्तालोलुपता और निजी
महत्वाकांक्षाओं ने इस पहाड़ी राज्य को राजनीतिक अस्थिरता के भंवर में धकेल दिया है.
यहाँ के नेताओं की सत्तालिप्सा के चलते ही आज उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लगा
है. राज्य की सत्ता हासिल करने की इस अमर्यादित दौड़ में कांग्रेस और भाजपा के बीच
जबरदस्त जंग छिड़ी हुई है. सत्ता पाने की इस होड़ में अलग राज्य गठन से जुड़े
बुनियादी सवाल पहले ही दरकिनार हो चुके हैं. अब खुदगर्ज नेताओं ने
अलग राज्य के सपने को भी चकनाचूर कर दिया
है. उत्तराखंड की आम जनता कांग्रेस और भाजपा के हाथों की महज कठपुतली बन कर रह गई
है. मौजूदा सत्ता कलह के चलते पहाड़ के
नेताओं की विश्वसनीयता और साख पर ही बट्टा नहीं लगा है ,बल्कि
इस सियासी प्रहसन से यहाँ के आम लोग बेहद निराश और हताश हैं. इन दिनों उत्तराखंड
के भीतर चल रही सियासी उठापटक से यह साफ हो गया कि सत्ता में बने रहना यहाँ के
नेताओं की पहली और आखिरी प्राथमिकता है, इसके लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं.
अलग
उत्तराखंड राज्य यहाँ के आम लोगों के लिए उज्ज्वल भविष्य का एक सुनहरा सपना था. इस
सपने को पूरा करने के लिए यहाँ के लोगों ने कई दशकों तक संघर्ष किया. इस संघर्ष के
दौरान यहाँ के लोगों ने बहुत बड़ी कीमत चुकाई. अलग राज्य की खातिर दर्जनों
आंदोलनकारियों ने शहादतें दीं, अपमान सहा और यातनाएं झेली. हालांकि पृथक
उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दौरान भी पहाड़ का राजनैतिक नेतृत्व विश्वसनीय साबित
नहीं हुआ क्योंकि कांग्रेस और भाजपा अलग उत्तराखंड राज्य के स्वाभाविक हिमायती नहीं रहे हैं. भाजपा 1987 से पहले छोटे
राज्यों की पक्षधर नहीं थी.1987 में पहली बार भाजपा ने देश में छोटे राज्यों की
खुलकर हिमायत की, पर
कांग्रेस के ज्यादातर बड़े नेता आखिर तक उत्तराखंड राज्य के मुख़ालिफ़ थे. जब
अलग उत्तराखंड राज्य का मुद्दा प्रचंड
जनांदोलन में तबदील हो गया, तब कांग्रेस को अपनी सियासी जमीन
बचाने के लिए इस मुद्दे का समर्थन करने पर
मजबूर होना पडा था.
भाजपा छोटे
राज्यों की पक्षधर तो थी पर छोटे राज्यों के नियोजन को लेकर भाजपा समेत किसी भी राष्ट्रीय सियासी पार्टी के पास कोई
खाका नहीं था. इन दलों की पहली प्राथमिकता संभावित राज्यों की सत्ता में काबिज
होने की थी. लंबी जंग और शहादतों के बाद
आम लोगों के संघर्ष के बूते आख़िरकार नौ नवंबर 2000 को उत्तराखंड राज्य वजूद
में आ गया. तब अविभाजित उत्तर प्रदेश
विधानसभा के लिए उत्तराखंड से चुने गए 22
विधायकों और नौ विधान परिषद सदस्यों को मिलाकर 31 सदस्यों की पहली अंतरिम विधान
सभा बनी. राज्य के अस्तित्व में आते ही भाजपा के भीतर मुख्यमंत्री की कुर्सी को
लेकर खींचतान शुरू हो गई थी. नेताओं की आपसी रस्साकशी के बीच भाजपा के नित्यानंद
स्वामी मुख्यमंत्री बनाए गए. वे 354 दिन तक ही मुख्यमंत्री रह पाए. 30 अक्टूबर ,2001
को भाजपा ने भगत सिंह कोश्यारी को राज्य
का नया मुख्यमंत्री बना दिया.अलग राज्य
बनने के बाद अलग राज्य बनने के बाद सभी सियासी पार्टियों से जुड़े हरेक कार्यकर्ता
की महत्वाकांक्षा सीधे आसमान पहुंच गई. जो कभी ग्राम प्रधान बनने का भी ख्वाब नहीं
देखते थे, वे एमएलए बनने की उड़ान भरने लगे. ज्यादातर विधायक
मुख्यमंत्री बनने की हसरत पालने लगे.
2002
में उत्तराखंड में पहली चुनी हुई सरकार बनी. इस चुनाव में कांग्रेस ने 70 में से 36 विधान सभा सीटों पर जीत दर्ज की. जबकि
भाजपा 19 सीटों पर ही
अटक गई. कांग्रेस के भीतर मुख्यमंत्री की
कुर्सी को लेकर मचे जबरदस्त घमासान
के मद्देनजर कांग्रेस ने नारायण दत्त
तिवारी को उत्तराखंड का मुख्यमंत्री बना दिया.
तिवारी की ज्यादातर ऊर्जा पार्टी के भीतर चल रहे सनातन विद्रोह को
दबाने में ही चुक गई. अपनी कुर्सी की
हिफाजत के खातिर सैकड़ों लालबत्तियां बांट कर तिवारी ने पांच साल का कार्यकाल बमुश्किल पूरा किया. वे
पांच साल का कार्यकाल पूरा करने वाले अकेले मुख्यमंत्री हैं.
2007 के
विधानसभा चुनाव में भाजपा को 34 और कांग्रेस को 21 सीटें मिली. भाजपा ने उत्तराखंड क्रांति दल के तीन एमएलए के समर्थन से
सरकार बनाई. 8 मार्च 2007 को भुवन
चन्द्र खंडूड़ी मुख्यमंत्री बने. 839 दिनों बाद उन्हें हटा कर
24 जून 2009 को रमेश पोखरियाल "निशंक" को मुख्यमंत्री
बना दिया गया. निशंक 808 दिन
मुख्यमंत्री रहे. 11 सितंबर 2011 को
खंडूड़ी को दोबारा मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंप दी गई. भाजपा ने
पांच साल के दौरान प्रदेश को
तीन मुख्यमंत्री दिए. इन सभी
का ज्यादातर कार्यकाल आंतरिक संघर्षों से
निपटने में बीत गया. इस दौरान भाजपा के भीतर भी मुख़्यमंत्री पद के लिए खींचतान लगातार बनी रही. जो
मुख्यमंत्री या मंत्री नहीं बन सके, उन्हें दर्जा मंत्री के
ओहदों से नवाजा गया. नारायण दत्त तिवारी के शासनकाल में बांटी गई लालबत्तियों को
चुनावी मुद्दा बनाकर सत्ता में आई भाजपा ने भी खुद वही किया.
2012
के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 32 और भाजपा ने 31 सीटें जीतीं. तीन बसपा के और
तीन निर्दलीय और एक उक्रांद के एमएलए के
समर्थन से कांग्रेस ने सरकार बनाई.कांग्रेस के बड़े नेताओं के बागी
तेवरों को नजरअंदाज कर 13 मार्च 2012 को विजय बहुगुणा मुख्यमंत्री बनाए गए. बहुगुणा 690 दिन
मुख्यमंत्री रहे. एक फरवरी 2014 को हरीश रावत को उत्तराखंड का मुख्यमंत्री बना दिया गया. हरीश रावत को भी खुद का बोया काटना
पड़ा. उन्होंने भी ज्यादातर विधायकों और दूसरे नेताओं को दर्जा मंत्री की खूब खैरात
बांटी. पर इस मर्तवा यह तरकीब भी बेअसर साबित हुई. आख़िरकार 18 मार्च को कांग्रेस के नौ विधायक खुलेआम बगावत में उत्तर आए. राज्य के
भीतर चल रही सियासी असमंजस के बीच 27 मार्च को
केंद्र सरकार ने उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लगा दिया. कांग्रेस पार्टी
के भीतर से शुरू हुआ सत्ता का यह संघर्ष अब न्यायालयों की चौखट में जा पहुंचा है.
दुर्भाग्य से
अलग उत्तराखंड राज्य का आगाज ही सत्ता
संघर्ष और घोटालों के आरोपों से हुआ. जब उत्तराखंड के भीतर सरकार भी नहीं बनी थी, राज्य
निर्माण के दौरान देहरादून में अस्थायी राजधानी के वास्ते सामान की खरीद में
नौकरशाही द्वारा करोड़ों की गड़बड़ी करने के
आरोप लगे. राज्य में जनप्रतिनिधियों की अगुआई में सरकारें बनने के बाद नेताओं के
नजदीक विभिन्न प्रजाति के माफियाओं ,दलालों और ठेकेदारों का मजबूत गठजोड़ विकसित हो गया. उत्तराखंड में अब
तक सरकारें कांग्रेस या भाजपा, जिसकी भी रहीं हों, नेता कोई भी हो, घोटालों के आरोपों से कोई भी नहीं बच सका है. इस सबके बीच दोनों पार्टियों
के आलाकमान राज्य में अपनी सरकारें बनाने और बचाने तक ही सीमित रहीं. वजह यह कि
उत्तराखंड के भीतर कांग्रेस और भाजपा को छोड़ तीसरी सियासी ताकत मौजूद नहीं है.
नतीजन राजनैतिक विकल्पहीनता के चलते उत्तराखंड में कांग्रेस और भाजपा के बीच सत्ता
सुख भोगने की बारी सी लग गई है. जनता के दुःख-दर्दों से किसी का कोई वास्ता नहीं.