बहुत
दिनों से मेल-अखबार वगैरह से दूर रहने के बाद आज अग्रज कवि संजय चतुर्वेदी की मेल
से पता लगा मोहम्मद शाहिद नहीं रहे.
भारतीय शैली की शास्त्रीय हॉकी के अंतिम स्तम्भों में गिने जाने वाले शाहिद को मैंने एक दफ़ा अपने लड़कपन में खेलते हुए देखा था. सन बयासी या चौरासी की बात है जब वे लखनऊ में एक एग्जीबीशन मैच खेल रहे थे. उस मैच में ज़फर इकबाल भी खेले थे और वरिष्ठ हो चुके अजितपाल सिंह भी.
तकरीबन मैदान की
लाइन पर खड़े होकर मोहम्मद शाहिद के तिलिस्मी खेल को देखने की सिहरन अब तक याद है. कुल छप्पन
साल की कम आयु में मल्टिपल ऑर्गन फेलियर के कारण इस दुनिया को विदा कह गए इस
खिलाड़ी को जिसने भी अस्सी के दशक में खेलते देखा होगा उनकी ड्रिब्लिंग को कभी नहीं
भूल सकता. 1980 के मॉस्को ओलिम्पिक में गोल्ड मैडल जीतने वाली भारतीय टीम का
महत्वपूर्ण हिस्सा रहे थे मोहम्मद शाहिद. स्पेन के खिलाफ खेले गए फाइनल में, जिसे भारत ने 4-3 से जीता था, में विनिंग गोल उन्होंने ही किया था. अपनी जन्मस्थली बनारस के अलावा कोई और शहर उन्हें आकर्षित न कर सका और किसी 'बड़ी' जगह न जाने की उनकी जिद ने उन्हें धीमे-धीमे
मुख्यधारा और देश के सरोकारों से दूर कर दिया. अंततः शराब ने उनकी जान ली.
टाइम्स
ऑफ़ इण्डिया ने उन्हें हॉकी का बिस्मिल्लाह खान कहा है और संजय जी ने अपनी मेल में
जो लिखा है उसे पोस्ट कर रहा हूँ. श्रद्धांजलि -
न
हन्यते हन्यमाने शरीरे !
मोहम्मद
शाहिद हॉकी के महानतम संगीतकारों में से एक थे. इनसाइड लेफ़्टविंगर के तौर पर उनके
मूवमेंट्स असाधारण रूप से प्रवाहमान और निर्बाध होते थे. वे 80 के दशक के हमारे
हीरो थे.
हमारी
दुआ आप तक पंहुचे, शाहिद
भाई! पुराने कपड़े छोड़कर आप नए संगीत में प्रवेश करें, देर
सबेर हम भी आपको नए वाद्यों के साथ देखेंगे.
सुर
के आगे मैदान रहै पुर में सिरीमान रहै न रहै
बानी
में सबद की चोट उठै काया में पिरान रहै न रहै
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