Sunday, July 31, 2016

तुम्हें वह घास नहीं मिलेगी

आज़ादी की घास
- हरिशंकर परसाई

हम तीन मित्र थे. हम पढ़ते थे जब सन् 42 का अंग्रेजो भारत छोड़ोआंदोलन चला. हमारे नेता ने हमें ललकारा. वे नारा देते थे- गुलामी के घी से आजादी की घास अच्छी है. हम उत्साही थे ही. अांदोलन में जोर-शोर से हिस्सा लिया. जेल गए. हमारे नेता का नारा था- गुलामी के घी से आजादी की घास अच्छी.

जेल से छूटे. पढ़ाई पूरी की. आजादी आ गई. हम डिग्रियां लिए शहर के चक्कर लगाने लगे.

हमारे नेता अब मंत्री हो गए थे. एक दिन हम उनके बंगले के सामने से निकले. देखा बंगले के अहाते में बहुत अच्छी घास हवा में हिलोरें ले रही थी. देशी और विलायती बढ़िया घास! हमारा जी ललचाने लगा. आजादी की घास कितनी अच्छी होती है.

हम बंगले में घुस गए. हमने उन्हें याद दिलाया कि हम उनके नेतृत्व में आजादी की लड़ाई लड़े थे. हमने नारे लगाए थे- गुलामी के घी से आजादी की घास अच्छी होती है.

मंत्री जी ने कहा, “ठीक है, ठीक है. तुम कैसे आए? क्या चाहते हो?”

हमने कहा, “आपके अहाते में इतनी बढ़िया आजादी की घास लगी है. हम थोड़ी-सी खाना चाहते हैं.


मंत्री जी ने कहा, “तुम्हें वह घास नहीं मिलेगी. वह मेरे पालतू गधों के खाने के लिए है.

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