Wednesday, August 3, 2016

सेनेका की सीखें - 4


"समय का इस्तेमाल करने में आपने उसकी तेज़ी को अपनी रफ़्तार से टक्कर देनी चाहिए, और आपने उस तेज़ रफ्तार से बह रही धारा में से जल्दी जल्दी पी लेना चाहिए जो हमेशा बहती नहीं रहेगी. ठीक जिस तरह यात्री वार्तालाप करने या पढ़ने से या गहरा चिंतन कर लेने से छला जाता है, और यह जानने से पहले कि वह अपनी मंजिल पर पहुँचने वाला था उसे लगता है वह अपनी मंजिल पर पहुँच गया है, जीवन की अनवरत और बेहद तेज़-रफ़्तार यात्रा के साथ भी यही होता है जिसे हम सोते और जागते उसी रफ़्तार से कर रहे होते हैं - चिंताओं में डूबे लोगों को इसका पता तब लगता है जब वह समाप्त हो चुकी होती है.

सारे लोगों में से केवल उन्हीं लोगों के पास खाली समय होता है जो दर्शन-विचार के लिए समय बनाते हैं, केवल वे ही लोग वास्तव में जीवित हैं. क्योंकि वे न सिर्फ अपनी जिन्दगानियों की भले से पहरेदारी करते हैं, वे हर युग को अपने समय के साथ मिला लेते हैं. जितने भी साल उनसे पहले बीत चुके हैं, वे उनके अपने सालों में जुड़ जाते हैं. अगर हम बहुत ज़्यादा अहसानफरामोश न हों तो उन सारे पवित्र मतों-सम्प्रदायों के प्रतिष्ठित संस्थापक हमीं में से पैदा हुए थे और उन्होंने हमारे लिए जीवन जीने का एक रास्ता बनाया. दूसरों की मेहनत से हमें उन चीज़ों की उपस्थिति के भीतर ले जाया जाता है जिन्हें अँधेरे से उजाले में लाया गया है.  
   
उनसे आप जो मर्जी चाहें ले सकते हैं: यह उनकी ग़लती नहीं होगी अगर आप उनमें से अपना हिस्सा न लें. जिस आदमी ने अपने आप को उनका मुवक्किल बना लिया उसके लिए क्या शानदार खुशी और कैसा ज़बरदस्त बुढ़ापा इंतज़ार कर रहा है! उसके पास दोस्त होंगे, सबसे महत्वपूर्ण और सबसे छोटी चीज़ों की बाबत जिनकी सलाह वह ले सकता है, जिनसे वह अपने खुद के बारे में रोज़ मशविरा कर सकता है, जो बिना उसे शर्मिंदा करे उसे सच बताएंगे और बिना उसकी चापलूसी किये उसकी तारीफ़ करेंगे, जो उसके आगे एक आदर्श पेश करेंगे जिस पर वह अपने आप को ढाल सकता है.


हमें यह कहने की आदत पड़ चुकी है कि यह हमारे अधिकार में नहीं था कि हम उन माता-पिताओं को चुन पाते जो हमें दिए गए और यह कि वे हमें बस यूं ही दे दिए गए. लेकिन हम यह तो चुन ही सकते हैं कि हम किसके बच्चे बनना चाहेंगे. सबसे उच्चकुलीन ज्ञान के घराने हुआ करते 
हैं - उनमें से उसे चुन लो जिसमें तुम गोद लिए जाना चाहते हो, और तुम्हें न सिर्फ उसका नाम मिलेगा उसकी संपत्ति भी तुम्हारी होगी. और इस संपत्ति का पहरा कंजूसी से या द्वेष के साथ करने की ज़रुरत नहीं होगी: उसे जितना बांटा जाएगा, वह उतनी ही अधिक होती जाएगी. वे तुम्हें अमरत्व का रास्ता पेश करेंगे और आपको एक ऐसे बिंदु तक उठा देंगे जहाँ से किसी को भी गिराया नहीं जाता. मनुष्य की भंगुरता को लंबा करने का यही इकलौता रास्ता है - यहाँ तक कि उसे अमरता में बदलने का भी."

Tuesday, August 2, 2016

सेनेका की सीखें - 3

पेंटिंग: 'द डैथ ऑफ़ सेनेका' - पीटर पॉल रूबेंस की कृति

"वे सब जो आपको अपने पास बुला रहे होते हैं, आपको अपने आप से दूर कर रहे होते हैं.

मुझे हमेशा हैरत होती है जब मैं देखता हूँ कि जब कुछ लोग दूसरों का समय मांगते हैं और उन्हें बहुत मेहरबान किस्म का रेस्पोंस मिलता है. दोनों पक्षों के पास उस कारण को देखने की दृष्टि होती है जिसके लिए समय को माँगा जा रहा है और उनमें से कोई भी समय की बाबत नहीं सोचता - जैसे कि कुछ भी न माँगा जा रहा हो और कुछ भी न दिया जा रहा हो. वे जीवन की सबसे मूल्यवान वास्तु के साथ खिलवाड़ कर रहे होते हैं; उन्हें धोखा होता है कि वह कोई अमूर्त चीज़ है, जिसका निरीक्षण नहीं किया जा सकता और जिस वजह से उसे बहुत सस्ता समझा जाता है - दरअसल उसकी कोई कीमत ही नहीं मानी जाती.

समय की कीमत को कोई नहीं आंकता: आदमी उसे इस तरह खुले हाथों इस्तेमाल करते हैं जैसे कि उसकी कोई कीमत ही न हो. हमें उसे बचाने के लिए ज़्यादा सावधान रहना चाहिए जो एक अनजाने बिंदु पर ख़त्म हो जाने वाला है.

बीत गए सालों को कोई भी वापस लेकर नहीं आएगा; कोई भी आपको आपके भीतर वापस लौटाने वाला नहीं. जीवन उसी राह पर चलता जाएगा जिस पर उसने चलना शुरू किया है, न वह वापस उसी दिशा में  लौटेगा न अपने रास्ते की पड़ताल करेगा. वह आपको अपनी तेज़ रफ़्तार की बाबत बताने के लिए कोई कोलाहल नहीं करेगा, बल्कि बिना आवाज़ किये बहता चला जाएगा. वह किसी राजा के आदेश या लोगों पर किसी अहसान के लिए  खुद को लंबा नहीं करेगा. जिस तरह वह पहले दिन शुरू हुआ था, वह उसी तरह चलता जाएगा - न वह थमेगा, न पलटेगा. नतीजा क्या होगा? जीवन भागा जाता है और आप अपने में उलझे रहे हैं. इसी दरम्यान मृत्यु आ जाएगी और आपके पास कोई विकल्प नहीं बचेगा सिवाय इसके कि आप खुद को उसके लिए उपलब्ध बनाएं.

चीज़ों को टालना जीवन की सबसे बड़ी बर्बादी है: यह हर दिन को उसके आते ही छीन लेता है, और भविष्य का वायदा करके हमसे हमारा वर्तमान छीन लेता है. जीवन को जीने में सबसे बड़ी बाधा है उम्मीद जो आने वाले कल वाले कल पर निर्भर करती है और आज को खो देती है. आप उसकी योजना बना रहे हैं जो भविष्य के नियंत्रण में है, और उसे त्याग रहे हैं जिस पर आपका नियंत्रण है. आपकी निगाह है किस चीज़ पर? आप किस लक्ष्य के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं? सारा भविष्य अनिश्चितता में है: अभी जियो."

(जारी)

सेनेका की सीखें - 2

"चिंतित आदमी किसी भी काम को सफलतापूर्वक नहीं कर सकता ... क्योंकि जब आप अन्यमनस्क होते हैं   आपका दिमाग किसी भी बात को गहरे नहीं समझ सकता,  उलटे वह हर उस चीज़ को नकारता है जो उसके भीतर दरअसल  ठूंसी जा रही होती हैं.  जीना एक अन्यमनस्क व्यक्ति के लिए सबसे गैरज़रूरी गतिविधि होती है; लेकिन सीखने को इससे मुश्किल कोई भी चीज़ नहीं. यह सीखना कि कैसे जिया जिया जाय पूरा जीवन ले लेता है; और आपको यह जानकर हैरत होगी कि यह सीखने में पूरा जीवन लग जाता है कि मरा कैसे जाय.

हर कोई अपने जीवन को आगे ठेलता जाता है और भविष्य की कामना और वर्तमान की थकन से परेशान रहता है. ऐसा आदमी जो अपने दिन को इस तरह व्यवस्थित करता है मानो वह उसका आख़िरी दिन हो, न तो अगले दिन की कामना करता है न उससे डरता है. इस जीवन में से कुछ भी निकाला नहीं जा सकता, और उसमें आप सिर्फ इतना ही जोड़ सकते हैं जैसे कि आप किसी पूरी तरह संतुष्ट व्यक्ति को वह भोजन दें जिसकी उसे इच्छा नहीं है और जिसे वह केवल थामे रह सकता है. सो आपको यह कभी नहीं सोच लेना चाहिए कि फलां व्यक्ति ने लंबा जीवन जिया है क्योंकि उसके बाल सफ़ेद हैं और जिस पर झुर्रियां गिर चुकी हैं. वह लम्बे समय तक जिया नहीं है, उसका बस लम्बे समय तक अस्तित्व बना रहा है. मान लीजिये कि एक आदमी एक ऐसी लम्बी यात्रा पर रहा जिसमें बंदरगाह छोड़ने के बाद से वह भीषण तूफानों में फंसा रहा और एक दूसरे के खिलाफ बहती हवाओं ने उसे इधर से उधर और उधर से इधर के तमाम चक्रों में उलझाए रखा. उसने कोई लम्बी यात्रा नहीं की, वह बस डोलता रहा.

यह अवश्यम्भावी है कि उन लोगों के लिए जीवन न सिर्फ बेहद छोटा होगा जो कड़ी मशक्कत से चीज़ों को हासिल करते हैं और जिन्हें अपने पास बनाए रखने के लिए जिन्हें और भी कड़ी मशक्कत करनी पड़े. उनका जीवन बहुत दुखी भी होगा. वे उन चीज़ों को श्रम करके प्राप्त करते हैं जिनकी उन्हें चाह होती है. उनके पास वह होता है जिसे उन्होंने बड़ी चिताओं से हासिल किया है. और इस दरम्यान वे उस समय का कोई हिसाब नहीं रखते जो कभी लौट कर नहीं आने वाला. नई चिताएं पुरानी चिंताओं की जगह ले लेती हैं, उम्मीद उत्तेजित होकर और उम्मीदें पैदा करती है और महत्वाकांक्षा और अधिक महत्वाकांक्षाएं. वे अपने दुख का अंत करने का जतन नहीं करते, वे बस उसके कारण को बदलते रहते हैं.


असल में उन सारे लोगों की स्थिति दुखभरी होती है जिनका मन कहीं और लगा होता है. लेकिन सबसे ज्यादा दुखी वे लोग होते हैं जो अपनी खुद की चिंताओं पर मेहनत नहीं करते; उलटे उन्हें अपनी नींद को दूसरों की नींद के आधार पर नियमित करना होता है, दूसरे के कदमों के हिसाब से चलना होता है, और उन्हें दुनिया की सबसे स्वतंत्र चीज़ों - प्रेम और घृणा - में दूसरों के आदेश मानने होते हैं. अगर ऐसे लोग यह जानना चाहते हैं कि उनके जीवन कितने संक्षिप्त हैं तो उन्हें इस बात पर विचार करने दो कि उनके जीवन का कितना हिस्सा उनका अपना है."

(जारी)

सेनेका की सीखें - 1


इटली के प्राचीन दार्शनिक सेनेका ने अपनी दो हज़ार साल पुरानी किताब 'ऑन द शॉर्टनेस ऑफ़ लाइफ़' में लिखा है - 

"ऐसा नहीं है कि हमें जीने के लिए कम समय मिलता है. दरअसल हम बहुत सारा समय बर्बाद कर देते हैं. जीवन पर्याप्त लम्बा होता है और अगर हम उसका सही निवेश करें तो उच्चतम उपलब्धियों को पा सकने के लिए वह समुचित मात्रा में उदार भी है. लेकिन जब उसे अनावश्यक सुख के लिए तबाह किया जाता है और अच्छे कामों में नहीं लगाया जाता, अंत में मृत्यु की आख़िरी लाचारी हमें मजबूर कर देती है कि हमें अहसास होने लगे कि वह बीत चुका है इसके पहले कि उसके बीतने का हमें पता लगता. सो दरअसल यह बात है: हमें संक्षिप्त जीवन नहीं मिलता मगर हम उसे संक्षिप्त बना देते हैं. और यह कि उसकी आपूर्ति हमारे लिए कम नहीं     है और हम उसे बर्बाद करते जाते हैं ... अगर हम जान सकें कि उसे कैसे इस्तेमाल किया जा सके, जीवन लंबा होता है. लोग अपनी व्यक्तिगत संपत्ति को बचाने के मामले में कंजूस होते हैं लेकिन जैसे ही मसला समय को बर्बाद करने का आता है वे उस चीज़ को यानी समय को लेकर सबसे ज़्यादा बर्बादी करते हैं जिसके लिए कंजूसी बरतना उनके हित में होता."

समय बर्बाद करने वालों के लिए उनके पास एक स्पष्ट फटकार भी है -

"तुम इस तरह जी रहे हो जैसे हमेशा जिए चले जाओगे. तुम्हें अपनी भंगुरता का ज़रा भी अहसास नहीं होता; तुम इस बात पर ध्यान नहीं देते कि कितना समय बीत चुका है, उलटे तुम उसे इस तरह बर्बाद करते हो जैसे  कि तुम्हारे पास उसकी भरपूर सप्लाई मौजूद है - जबकि हो सकता है कि जिस दिन को आप किसी और चीज़ या किसी और व्यक्ति पर लगा रहे हैं, वह आपका आख़िरी दिन हो. जिस चीज से तुम्हें भय लगता है उसके  सामने तुम नश्वर प्राणी की तरह व्यवहार करते हो, और जिसकी तुम्हें कामना होती है उसके सामने तुम अमर बन जाते हो ... जब जीवन ख़त्म होते को होता है,तब तक जीना शुरू करने के लिए कितनी देर हो चुकी होती है! अपनी नश्वरता को भूल जाना और अपनी विवेकपूर्ण योजनाओं को उम्र के पचासवें या साठवें साल तक  स्थगित करते जाना कितनी बड़ी मूर्खता है! कितनी बड़ी मूर्खता है कि आप जीवन को उस बिंदु से शुरू करने को लक्ष्य बना लेते हैं जहाँ तक बहुत कम लोग पहुँच सके हैं!"
                                                                                                                        (जारी)

ओपन हाउस फॉर बटरफ्लाइज़ - 3









ओपन हाउस फॉर बटरफ्लाइज़ - 2









ओपन हाउस फॉर बटरफ्लाइज़ - 1

अपने चालीस साल के लेखन करियर में बच्चों के लिए कोई तीस बेहतरीन किताबें रूथ क्रॉस (25 जुलाई 1901 -10 जुलाई 1993) ने लिखीं लेकिन उन्हें सबसे अधिक ख्याति उस लेखक-इलस्ट्रेटर जोड़ी ने दी जिसका एक हिस्सा वे खुद थीं और दूसरा मॉरिस सेन्डाक. आठ सालों की अपनी भागीदारी में उन्होंने कुछ बेहतरीन किताबें दीं जिनमें से एक मित्रता के बारे में थी - 'आई विल बी यू एंड यूं बी मी'. लेकिन इन दोनों की जोड़ी ने जो सबसे शानदार किताब तैयार की वह उनकी आठवीं और अंतिम थी जिसका शीर्षक था - 'ओपन हाउस फॉर बटरफ्लाइज़' 1960 में छपी यह किताब लम्बे इंतज़ार के बाद 2001 में पुनर्मुद्रित होकर आई. बच्चों और बड़ों को सामान रूप से आनंदित करने वाली यह किताब एक दफ़ा देखे-पढ़े जाने की दरकार रखती है. कुछ पन्ने देखिये -









उच्चवर्गीय कुत्ते का वर्ग चिंतन

एक मध्यवर्गीय कुत्ता
- हरिशंकर परसाई

मेरे मित्र की कार बंगले में घुसी तो उतरते हुए मैंने पूछा, “इनके यहां कुत्ता तो नहीं है?“ मित्र ने कहा, “तुम कुत्ते से बहुत डरते हो!मैंने कहा, “आदमी की शक्ल में कुत्ते से नहीं डरता. उनसे निपट लेता हूं. पर सच्चे कुत्ते से बहुत डरता हूं.
कुत्तेवाले घर मुझे अच्छे नहीं लगते. वहां जाओ तो मेजबान के पहले कुत्ता भौंककर स्वागत करता है. अपने स्नेही से नमस्तेहुई ही नहीं कि कुत्ते ने गाली दे दी- क्यों यहां आया बे? तेरे बाप का घर है? भाग यहां से !

बंगले में हमारे स्नेही थे. हमें वहां तीन दिन ठहरना था. मेरे मित्र ने घण्टी बजायी तो जाली के अंदर से वही भौं-भौंकी आवाज़ आयी. मैं दो क़दम पीछे हट गया. हमारे मेजबान आये. कुत्ते को डांटा- टाइगर, टाइगर!उनका मतलब था- शेर, ये लोग कोई चोर-डाकू नहीं हैं. तू इतना वफ़ादार मत बन.

कुत्ता ज़ंजीर से बंधा था. उसने देख भी लिया था कि हमें उसके मालिक खुद भीतर ले जा रहे हैं पर वह भौंके जा रहा था. मैं उससे काफ़ी दूर से लगभग दौड़ता हुआ भीतर गया. मैं समझा, यह उच्चवर्गीय कुत्ता है. लगता ऐसा ही है. मैं उच्चवर्गीय का बड़ा अदब करता हूं. चाहे वह कुत्ता ही क्यों न हो. उस बंगले में मेरी अजब स्थिति थी. मैं हीनभावना से ग्रस्त था- इसी अहाते में एक उच्चवर्गीय कुत्ता और इसी में मैं! वह मुझे हिकारत की नज़र से देखता.

शाम को हम लोग लॉन में बैठे थे. नौकर कुत्ते को अहाते में घुमा रहा था. मैंने देखा, फाटक पर आकर दो सड़कियाआवारा कुत्ते खड़े हो गए. वे सर्वहारा कुत्ते थे. वे इस कुत्ते को बड़े गौर से देखते. फिर यहां-वहां घूमकर लौट आते और इस कुत्ते को देखते रहते. पर यह बंगलेवाला उन पर भौंकता था. वे सहम जाते और यहां-वहां हो जाते. पर फिर आकर इस कु्ते को देखने लगते. मेजबान ने कहा, “यह हमेशा का सिलसिला है. जब भी यह अपना कुत्ता बाहर आता है, वे दोनों कुत्ते इसे देखते रहते हैं.’’

मैंने कहा, “पर इसे उन पर भौंकना नहीं चाहिए. यह पट्टे और ज़ंजीरवाला है. सुविधाभोगी है. वे कुत्ते भुखमरे और आवारा हैं. इसकी और उनकी बराबरी नहीं है. फिर यह क्यों चुनौती देता है!

रात को हम बाहर ही सोए. ज़ंजीर से बंधा कुत्ता भी पास ही अपने तखत पर सो रहा था. अब हुआ यह कि आसपास जब भी वे कुत्ते भौंकते, यह कुत्ता भी भौंकता. आखिर यह उनके साथ क्यों भौंकता है? जब वे मोहल्ले में भौंकते हैं तो यह भी उनकी आवाज़ में आवाज़ मिलाने लगता है, जैसे उन्हें आश्वासन देता हो कि मैं यहां हूं, तुम्हारे साथ हूं.

मुझे इसके वर्ग पर शक़ होने लगा है. यह उच्चवर्गीय कुत्ता नहीं है. मेरे पड़ोस में ही एक साहब के पास थे दो कुत्ते. उनका रोब ही निराला ! मैंने उन्हें कभी भौंकते नहीं सुना. आसपास के कुत्ते भौंकते रहते, पर वे ध्यान नहीं देते थे. लोग निकलते, पर वे झपटते भी नहीं थे. कभी मैंने उनकी एक धीमी गुर्राहट ही सुनी होगी. वे बैठे रहते या घूमते रहते. फाटक खुला होता तो भी वे बाहर नहीं निकलते थे. बड़े रोबीले, अहंकारी और आत्मतुष्ट.

यह कुत्ता उन सर्वहारा कुत्तों पर भौंकता भी है और उनकी आवाज़ में आवाज़ भी मिलाता है. कहता है- मैं तुममें शामिल हूं.उच्चवर्गीय झूठा रोब भी और संकट के आभास पर सर्वहारा के साथ भी- यह चरित्र है इस कुत्ते का. यह मध्यवर्गीय चरित्र है. यह मध्यवर्गीय कुत्ता है. उच्चवर्गीय होने का ढोंग भी करता है और सर्वहारा के साथ मिलकर भौंकता भी है. तीसरे दिन रात को हम लौटे तो देखा, कुत्ता त्रस्त पड़ा है. हमारी आहट पर वह भौंका नहीं, थोड़ा-सा मरी आवाज़ में गुर्राया. आसपास वे आवारा कुत्ते भौंक रहे थे, पर यह उनके साथ भौंका नहीं. थोड़ा गुर्राया और फिर निढाल पड़ गया. मैंने मेजबान से कहा, “आज तुम्हारा कुत्ता बहुत शांत है.’’

मेजबान ने बताया, “आज यह बुरी हालत में है. हुआ यह कि नौकर की गफ़लत के कारण यह फाटक से बाहर निकल गया. वे दोनों कुत्ते तो घात में थे ही. दोनों ने इसे घेर लिया. इसे रगेदा. दोनों इस पर चढ़ बैठे. इसे काटा. हालत ख़राब हो गयी. नौकर इसे बचाकर लाया. तभी से यह सुस्त पड़ा है और घाव सहला रहा है. डॉक्टर श्रीवास्तव से कल इसे इंजेक्शन दिलाउंगा.’’

मैंने कुत्ते की तरफ़ देखा. दीन भाव से पड़ा था. मैंने अन्दाज़ लगाया. हुआ यों होगा-

यह अकड़ से फाटक के बाहर निकला होगा. उन कुत्तों पर भौंका होगा. उन कुत्तों ने कहा होगा- अबे, अपना वर्ग नहीं पहचानता. ढोंग रचता है. ये पट्टा और ज़ंजीर लगाये हैं. मुफ़्त का खाता है. लॉन पर टहलता है. हमें ठसक दिखाता है. पर रात को जब किसी आसन्न संकट पर हम भौंकते हैं, तो तू भी हमारे साथ हो जाता है. संकट में हमारे साथ है, मगर यों हम पर भौंकेगा. हममें से है तो निकल बाहर. छोड़ यह पट्टा और ज़ंजीर. छोड़ यह आराम. घूरे पर पड़ा अन्न खा या चुराकर रोटी खा. धूल में लोट.’’ यह फिर भौंका होगा. इस पर वे कुत्ते झपटे होंगे. यह कहकर- अच्छा ढोंगी. दग़ाबाज़, अभी तेरे झूठे दर्प का अहंकार नष्ट किए देते हैं.

इसे रगेदा, पटका, काटा और धूल खिलायी.


कुत्ता चुपचाप पड़ा अपने सही वर्ग के बारे में चिन्तन कर रहा है.

Monday, August 1, 2016

जीनी तोमानेक के चित्र











कवि गोबरधनदास की जय

खोज एक देशभक्त कवि की
-हरिशंकर परसाई

बाबू गोपालचंद्र बड़े नेता थे, क्योंकि उन्होंने लोगों को समझाया था और लोग समझ भी गए थे कि अगर वे स्वतंत्रता संग्राम में दो बार जेल – ‘ए क्लासमें न जाते, तो भारत आजाद होता ही नहीं. तारीख 3 दिसंबर 1950 की रात को बाबू गोपालचंद्र अपने भवन की तीसरी मंजिल के सातवें कमरे में तीन फीट ऊँचे पलँग के एक फीट मोटे गद्दे पर करवटें बदल रहे थे. वे एक योजना से पीड़ित थे. उन्होंने हाल ही में करीब चार लाख रुपए का चंदा करके स्वतंत्रता संग्राम के शहीदों की स्मृति में एक भव्य बलि स्मारकका निर्माण करवाया था. वे उसके प्रवेश द्वार पर देश-प्रेम और बलिदान की कोई कविता अंकित करना चाहते थे. उलझन यही थी कि वे पंक्तियाँ किस कवि की हों. स्वतंत्रता संग्राम में स्वयं जेल-यात्रा करने वाले अनेक कवि थे, जिनकी ओजमय कविताएँ थीं और वे नई लिखकर दे भी सकते थे. पर वे बाबू गोपालचंद्र को पसंद नहीं थीं. उनमें शक्ति नहीं है, आत्मा का बल नहीं है उनका मत था.

परेशान होकर उन्होंने रखा ग्रंथ निकाला अकबर बीरबल विनोदऔर पढ़ने लगे एक किस्सा : ‘…तब अकबर ने जग्गू ढीमर से कहा, ‘देख रे, शहर में जो सब से सुंदर लड़का हो उसे कल दरबार में लाकर हाजिर करना, नहीं तो तेरा सिर कलम कर दिया जाएगा.बादशाह का हुक्म सुनकर जग्गू ढीमर चिंतित हुआ. आखिर शहर का सबसे सुंदर लड़का कैसे खोजे. वह घर की परछी में खाट पर बड़ा उदास पड़ा था कि इतने में उसकी स्त्री आई. उसने पूछा, ‘आज बड़े उदास दीखते हो. कोई बात हो गई है क्या?’ जग्गू ने उसे अपनी उलझन बताई. स्त्री ने कहा, ‘बस, इतनी-सी बात. अरे अपने कल्लू को ले जाओ. ऐसा सुंदर लड़का शहर-भर में न मिलेगा.जग्गू को बात पटी. खुश होकर बोला, ‘बताओ भला! मेरी अक्ल में इतनी-सी बात नहीं आई. अपने कल्लू की बराबरी कौन कर सकता है.बस, दूसरे दिन कल्लू को दरबार में हाजिर कर दिया गया. कल्लू खूब काला था. चेहरे पर चेचक के गहरे दाग थे. बड़ा-सा पेट, भिचरी-सी आँखें और चपटी नाक.

किस्सा पढ़कर बाबू गोपाल ठीक जग्गू ढीमर की तरह प्रसन्न हुए. वे  उठे और पुत्र को पुकारा, ‘गोबरधन! सो गया क्या? जरा यहाँ तो आ.गोबरधन दोस्तों के साथ शराब पीकर अभी लौटा ही था. लड़खड़ाता हुआ आया. गोपालचंद्र ने पूछा, ‘क्यों रे, तू कविता लिखता है न?’

गोबरधन अकबका गया. डरा कि अब डाँट पड़ेगी. बोला, ‘नहीं बाबूजी, मैंने वह बुरी लत छोड़ दी है.

गोपालचंद्र ने समझाया, ‘बेटा, डरो मत. सच बताओ. कविता लिखना तो अच्छी बात है.गोबरधन की जान तो आधे रास्ते तक निकल गई थी, फिर लौट आई. कहने लगा, ‘बाबूजी, पहले दस-पाँच लिखी थीं, पर लोगों ने मेरी प्रतिभा की उपेक्षा की. एक बार कवि-सम्मेलन में सुनाने लगा तो लोगों ने हूटकर दिया. तब से मैंने नहीं लिखी.

गोपालचंद्र ने समझाया, ‘बेटा, दुनिया हर जीनियसके साथ ऐसा ही सलूक करती है. तेरी गूढ़ कविता को समझ नहीं पाते होंगे, इसलिए हँसते होंगे. तू मुझे कल चार पंक्तियाँ देशभक्ति और बलिदान के संबंध में लिखकर दे देना.

गोबरधन नीचे देखते हुए बोला, ‘बाबूजी, मैंने इन हल्के विषयों पर कभी नहीं लिखा. मैं तो प्रेम की कविता लिखता हूँ. जहूरन बाई के बारे में लिखी है, वह दे दूँ?’

गोपालचंद्र गरम होते-होते बच गए. बड़े संयम से मीठे स्वर में बोले, ‘आज कल बलिदान त्याग और देश-प्रेम का फैशन है. इन्हीं पर लिखना चाहिए! गरीबों की दुर्दशा पर भी लिखने का फैशन चल पड़ा है. तू चाहे तो हर विषय पर लिख सकता है. तू कल शाम तक बलिदान और देश-प्रेम के भावोंवाली चार पंक्तियाँ मुझे जोड़कर दे दे. मैं उन्हें राष्ट्र के काम में लानेवाला हूँ.

कहीं छपेंगी?’ गोबरधन ने उत्सुकता से पूछा.

छपेंगी नहीं खुदेंगी, बलि-स्मारक के प्रवेश द्वार पर.गोपालचंद्र ने कहा. गोबरधन दास को प्रेरणा मिल गई. उसने दूसरे दिन शाम तक चार पंक्तियाँ जोड़ दीं. गोपालचंद्र ने उन्हें पढ़ा तो हर्ष से उछल पड़े, ‘वाह बेटा, तूने तो एक महाकाव्य का सार तत्व भर दिया है इन चार पक्तियों में. वाह गागर में सागर!वे चार पंक्तियाँ तारीख छह सितंबर को बलि-स्मारकके प्रवेश-द्वार पर खुद गईं. नीचे कवि का नाम अंकित किया गया गोबरधन दास.

विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के शोध कक्ष में डॉ. वीनसनंदन अपने प्रिय छात्र रॉबर्ट मोहन के साथ चर्चा कर रहे थे. इस काल के अंतरराष्ट्रीय नाम होने लगे. रॉबर्ट मोहन डॉ. वीनसनंदन के निर्देश में बीसवीं शताब्दी की कविता पर शोध कर रहा था. मोहन बड़ी उत्तेजना में कह रहा था, ‘सर, पुरातत्व विभाग में ऐसा क्लूमिला है कि उस युग के सर्वश्रेष्ठ राष्ट्रीय कवि का मुझे पता लग गया है. हम लोग बड़े अंधकार में चल रहे थे. परंपरा ने हमें सब गलत जानकारी दी है. निराला, पंत, प्रसाद, माखनलाल चतुर्वेदी, दिनकर आदि कवियों के नाम हम तक आ गए हैं परंतु उस कृतघ्न युग ने अपने सब से महान राष्ट्रीय कवि को विस्मृत कर दिया. मैं विगत युग को प्रकाशित करनेवाला हूँ.

तुम दंभी हो.डॉक्टर ने कहा. तो आप मूर्ख हैं.शिष्य ने उत्तर दिया. गुरु-शिष्य संबंध उस समय इस सीमा तक पहुँच गए थे. गुरु ने बात हँसकर सह ली. फिर बोले, ‘रॉबर्ट, मुझे तू पूरी बात तो बता.

राबर्ट ने कहा, ‘सर, हाल ही में सन 1950 में निर्मित एक भव्य बलि-स्मारक जमीन के अंदर से खोदा गया है.
शिलालेख से मालूम होता है कि वह भारत के स्वतंत्रता संग्राम में प्राणोत्सर्ग करनेवाले देश-भक्तों की स्मृति में निर्मित किया गया था. उसके प्रवेश-द्वार पर एक कवि की चार पंक्तियाँ अंकित मिली हैं. वह स्मारक देश में सबसे विशाल था. ऐसा मालूम होता है कि समूचे राष्ट्र ने इनके द्वारा शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित की थी. उस पर जिस कवि की कविता अंकित की गई है, वह सबसे महान कवि रहा होगा.

क्या नाम है उस कवि का?’ डॉक्टर साहब ने पूछा.

गोबरधनदास’, मोहन बोला. उसने कागज पर उतारी हुई वे पंक्तियाँ डॉक्टर साहब के सामने रख दीं.


डॉक्टर साहब ने प्रसन्न मुद्रा में कहा, ‘वाह, तुमने बड़ा काम किया है.रॉबर्ट बोला, ‘पर अब आगे आपकी मदद चाहिए. इस कवि की केवल चार पंक्तियाँ ही मिली हैं, शेष साहित्य के बारे में क्या लिखा जाए?’ डॉक्टर साहब ने कहा, ‘यह तो बहुत ही सहज है. लिखो, कि उन का शेष साहित्य काल के प्रवाह में बह गया. उस युग में कवियों में गुट-बंदियाँ थीं. गोबरधनदास अत्यंत सरल प्रकृति के गरीब आदमी थे. वे एकांत साधना किया करते थे. वे किसी गुट में सम्मिलिति नहीं थे. इसलिए उस युग के साहित्यकारों ने उनके साथ बड़ा अन्याय किया. उनकी अवहेलना की गई, उन्हें कोई प्रकाशक नहीं मिला. उनकी कुछ पुस्तकें प्रकाशित हुई थीं. पर अन्य कवियों ने प्रकाशकों से वे पुस्तकें खरीदकर जला दीं.