6.
मैं
कभी-कभी मैं नहीं रह जाता
-वैद्य
ब्राइट बूढ़ागोहाईं
मैं
कभी-कभी मैं नहीं रह जाता
सूखा
पत्ता बनकर झांकता रहता हूं
मिट्टी
की ऊर्वरता
मकड़ी
बनकर डाल बुनता हूं शून्य में
हिलता
रहता हूं हवा के झोंके के साथ
महसूस
करता हूं
शून्य
में शून्य की गहराई
पत्थर
बनकर पड़ा रहता हूं
जीवन
की किसी फर्श पर
मन
ही मन चखकर देखता हूं
पुरातन
प्रेम की कठिनता
झिंगुर
बनकर पहरा देता हूं
रात
की पृथ्वी पर
गिनता
रहता हूं खामोश रात का कोलाहल
और
कभी-कभी
मिट्टी
का एक दिया बनकर जलकर देखता हूं
किस
तरह खुद ही जल-जलकर
दूसरे
को रोशन रखने की
तीव्र
चाह सीने में रखकर
मंत्रणा
की धारा में तैरता है
कलेजे
में मौन रखकर
एक
शाम बनकर
अंदर
ही अंदर हिसाब करता हूं
जीवन
के गुजरे वक्त में किए गए
इतने
सारे कार्यों के भूल सुधार का हिसाब
7.
मरघट
-असीम
सुतीया
प्रत्येक
व्यक्ति के लिए
खुला
रहता है मरघट का दरवाजा
जहां
फर्क नहीं होता अमीर-गरीब का
जहां
देखी नहीं जाती जाति-अजाति
फर्क
करना
मरघट
का रिवाज नहीं
घास
से ओस के लिपटने की तरह
सबको
बांहों में भर लेता है मरघट
दर्पणमती...
तुम
भी अगर मरघट की तरह होती
मेरे
दुख की नाव में सुख का पतवार लेकर
जीवन
की राह पर
क्या
हम दोनों बढ़ सकते थे?
8.
गांव
-नील
नयन
चूर्ण-विचूर्ण
गांव को हीरा के टुकड़े की तरह सीने में लेकर घूमता हूं
शहरों
और महानगरों में
गांव
की विनती और गान की गोधूलि अस्त होने के बाद
रात
भेंटफूल एक सपना बनकर खिल उठे थे
आकाश
खेत फूल चिडिय़ा चरवाहे और नदी को गंवाने के बाद
तन्हाई
एक माशूका की तरह आंखों से बहा रही थी सीने की सिसकी
किसान
वृद्ध शिशु युवतियां युवक और एक दो
नौकरी
के जरिए गांव का नाम रोशन करने वाले नौकरीपेशा
अब
एक पुराने बंधु की तरह
9.
बकुल
फूल का काव्य
-सत्यजीत
नाथ
बकुल
फूल बटोरते हुए एक दिन
हमने
खो दिया था एक दूसरे को
देखा
था
अभिशप्त
पहाड़ के उस पार
डोर
टूटकर गिर पड़ी
एक
लाल पतंग को
जो
घर लौट रही चिडिय़ा के पंखकी हवा से टूटी नहीं थी
बारिश
की नदी में
बहती
हुई नाव अचानक ठिठक गई थी
घुटने
भर पानी की रोशनी में
छोटी
मछलियों को गुजरते हुए देखा था
एक
बड़ी मछली के पीछे-पीछे
बकुल
फूल खिलने के एक दिन
गीत
गाते हुए
आकाश
में गुजर गया था
हरे
पंछियों का एक झुंड
हरा
बनकर सुलग उठा था एक सूरज
बकुल
फूल बटोरते हुए आज
दोनों
हाथ थरथरा रहे हैं
हड्डियों
के बीच खिल उठा है
एक
अन्य अनदेखा बकुल
कहीं
आवाज
के साथ टूटने वाले
एक
सूरज की आवाज सुन रहा हूं
10.
पत्रकार
-हिमांग
दास
ओला
बारिश की रात
एक
ओला और
एक
बूंद बारिश की
कलम
के दैध्र्य के साथ
तंग
रास्ते से
बढ़ता
हुआ आदमी
ईमानदारी
और
साहस
की पंखुडिय़ों से
ओले
टकराते हैं
धूल
में मिला देने के लिए
कागज
के एक पन्ने से
ढकते
ढकते
बढ़ता
हुआ आदमी
(सभी
अनुवाद: दिनकर कुमार)
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