- हरिशंकर परसाई
कल
दिनभर मैं बिस्तर पर इस करवट से उस करवट होता रहा. रात होती तो इस बेचैनी का एक
मीठा-सा कारण मान लिया जाता. मगर मेरा दर्द वह नहीं था, जो रात को उभरता है और तारों की गिनती करवाता है. यह वह दर्द था, जो दिन में भी तारे दिखा दे. दोनों का कारण प्रेम ही है. एक प्रेम में दिल
दुखता है, दूसरे से पेट. मेरा पेट दुख रहा था.
एक
भले आदमी का मेरे प्रति बड़ा प्रेम है. कल जब उनका प्रेम बीच बरसात में बांध तोड़ने
लगा,
तो उन्होंने मुझे खाने पर बुलाया. वे सामने बैठकर बच्चों को परोसने
की हिदायत देते रहे. पहली बार जितना सामने रखा गया, उससे आधे
में ही हमारा पेट भर गया और हम धीरे-धीरे पापड़ चुगने लगे. पापड़ का जिसने भी आविष्कार
किया है, कमाल किया है. यह भोजन में शामिल भी है और नहीं भी.
इसे चुगते हुए बड़े-से-बड़े पेटू का साथ दिया जा सकता है.
हमारा
पापड़ चुगना उन्होंने देख लिया. उन्होंने आवाज लगाई तो लड़का-लड़की थोड़ी गर्म खीर और
हलवा डाल गए. सामने वे बैठे खाने पर जोर दे ही रहे थे. थोड़ा खाना ही पड़ा. फिर उनकी
पत्नी आईं और यह कहते हुए कि हमने तो अभी खिलाया ही नहीं, और डाल गईं. सामने वे बैठे थे और हमें फिर दो-चार कौर खाना पड़ा. फिर उनकी
बहू आई और बिना कुछ कहे, दही-बड़े डालकर झम्म से लौट गई. वे
बोले, ‘प्रेम से भोजन करो!’ वे हमारे
हाथ और मुंह को देखते हुए धमकी देने लगे. फिर उन्होंने आवाज लगाई, ‘अरे गर्म पूड़ी ले आओ.’ अब हमने थाली को हाथों से
ढांक लिया. लड़का झिझका. तब वे बोले, ‘अरे ये तेरे से नहीं
मानेंगे!’ और उन्होंने लड़के से पूड़ियां लेकर हाथ और थाली की
सेंध में से डाल दीं.
वे
समझे कि हम मिथ्या संकोच के कारण थाली को हाथ से ढंक रहे हैं. मिथ्या संकोच वाले
भी हमने देखे हैं. वे भी थाली पर दोनों हाथ फैला देते हैं, गर्दन हिलाते हैं, ‘नहीं-नहीं’ चिल्लाते हैं, पर दोनों हाथों के बीच इतनी जगह खाली
छोड़ रखते हैं कि समझदार परोसने वाला उनमें से दो लड्डू डाल दे. इस जगह में से
रोटी, सब्जी या भात नहीं छोड़ा जा सकता. यह लड्डू या बर्फी
की नाप से छोड़ी जाती है.
हमारे
हाथों के बीच बिल्कुल जगह नहीं थी. हमारी ‘नहीं’
बिल्कुल सच्ची थी. पर उन्हें विश्वास नहीं था. फिर तो हमने थाली
उठाकर सिर के ऊपर ओढ़ ली और पीछे रख ली, पर उनके सामने एक न
चली. गले तक भोजन ठस गया. डकार आई तो वह गले तक आकर रुक गई. आगे उसका रास्ता बंद
था. मैंने दाएं-बाएं झुककर श्वास नलिका में जगह बनाकर डकार निकालने की कोशिश की.
बड़ी मुश्किल से वह निकली और मुझे कुछ राहत मिली.
मुश्किल
से घर गया और बिस्तर पर गिर गया. अंग-अंग में बेचैनी थी. पेट तो खिंचाव के मारे
फटा पड़ रहा था. मुंह खोले मैं करवटें बदलता रहा. लगता था कि खीर और हलवा पावों में
भी घुस गया है. वे भी दुखते थे.
पड़े-पड़े
मैं सोचने लगा – उन्होंने हमें भोजन क्यों कराया? प्रेम के कारण. प्रेम में भोजन क्यों कराते हैं? क्योंकि
भोजन से सुख मिलता है.
क्या
मुझे सुख मिल रहा है? नहीं.
तो
क्या उनका मुझसे प्रेम नहीं है? फिर क्या बैर है?
1 comment:
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 15.12.16 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2557 में दिया जाएगा
धन्यवाद
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