Monday, December 12, 2016

फ़िराक़ हूं मैं न जोश हूं मजाज़ हूं मैं सरफ़रोश हूं - 3


(पिछली क़िस्त से आगे)

साहिर और मजाज़ को लेकर हज़ार दास्तानें, हज़ार किस्से हैं. इन तमाम किस्सों, इन तमाम दास्तानों में सबसे नुमाया चीज़ है - मुहब्बत. अगर शिकवे-गिले हैं तो वो भी इसी मुहब्बत का हिस्सा हैं.

साहिर लुधियानवी के नाम मजाज़ का एक ख़त है जिसमें इस बात का शिकवा था कि साहिर ने उसके बारे में लिख दिया था कि मजाज़ का दिमाग़ चल गया था और नतीजे में दो बार उसे पागलख़ाने जाना पड़ा था. इस बात ने मजाज़ के दिल को बड़ा गहरा सदमा पहुंचाया था. इस ख़त में इसी बात का शिकवा था कि साहिर जैसे अज़ीज़ दोस्त ने उनके नर्वस ब्रेक डाऊन को 'पाग़ल' होना क्यों क़रार दे दिया

मजाज़ जिस वक़्त दिल्ली की नौकरी छूटने के बाद किस्मत आज़माने बम्बई पहुंचे, साहिर भी उसी वक़्त इसी किस्म की जद्दो-जहद में उलझे थे. लेकिन इन दोनो की कोशिश में एक फ़र्क था - मुस्तकिल मिजाज़ी का. जहां साहिर बम्बई में जमकर संघर्ष कर रहे थे वहीं मजाज़ 'रास्ते में रुक के दम' लेने वालों में से थे ही नहीं सो बम्बई आते-जाते रहते थे लेकिन उसे कभी अपना घर न बनाया.

एक और बेहद ज़रूरी नुख़्ता : मजाज़ जिस वक़्त फिल्मों को अपने लिए ज़रिया-ए-माश बनाने की कोशिश कर रहे थे, उसी वक़्त इंसानी ज़िंदगी की बेहतरी के काम में भी बराबरी से मुब्तला रहे. मजाज़ का एक तरीका यह था कि बम्बई में साहिर की मुहब्बत में उनके साथ रह लेते थे, कुछ वक़्त गुज़ार लेते थे तो अपने वक़्त का एक बड़ा हिस्सा वो मज़दूरों की मदनपुरा बस्ती में महफ़िल सजाते. इंक़लाब की अहमियत बताते और उनमें इस वास्ते जज़्बा जगाते. नाचते-झूमते-गाते और रात में कम्यूनिस्ट पार्टी के दफ़्तर में जाकर सो जाते.

इसी दौर का एक बेहद मशहूर किस्सा है, वह ज़रूर सुनाऊंगा. इस बहाने मजाज़ के हालात को लेकर दिल पर चली आरियों के ज़ख़्म कुछ देर को थम जाएंगे. कुछ देर मुस्कराएंगे.

साहिर-मजाज़ के करीबी दोस्त प्रकाश पंडित का बयान किया हुआ किस्सा यूं है. एक फिल्म निर्माता होते थे पी.एन.अरोरा. वे एक फिल्म बना रहे थे 'हूर-ए-अरब'(1955 में रिलीज़). उन्होने इस फिल्म के गीत लिखने के लिए साहिर-मजाज़ को बुलाया हुआ था. अब इनकी बारी आती उससे पहले अभिनेत्री हेलन, जो उस वक़्त अरोरा के जाल में फंसी हुई थीं और इस फिल्म में भी काम कर रही थीं, का आना हुआ. वे सीधे अरोरा के चैंबर में घुस गईं और ये दोनो गर्मीं में पसीना बहाते बाहर बेंच पर बैठे इंतज़ार करते रहे.

इसी बीच एक साहब, इस मंज़र में नमूदार हुए, जिन्होने यह मुलाक़ात तय करवाई थी. छूटते ही सवाल किया कि मुलाक़ात हुई कि नहीं. साहिर ने जब ना में जवाब दिया तो फिर नया सवाल आया - क्यों?

इस बार जवाब मजाज़ ने, मजाज़ वाले अंदाज़ में ही दिया. चेहरे से पसीना पोंछकर फैंकते हुए फ़रमाया: ''हुज़ूर इसलिए कि हूर तो कब से अन्दर है और हम बाहर अरब में बैठे पसीना बहा रहे हैं''

एक बात बेहद काबिले ज़िक्र है. मजाज़ की दर्दो-ग़म से भरी और नतीजतन शराबनोशी के समंदर में डूबी ज़िंदगी का एक हसीन पहलू यह है कि इन हालात के बावजूद हंसना-हंसाना कभी न भूले. उनका सा सेंस आफ ह्यूमर विरले लोगों में ही हो सकता है. मजाज़ के इस पहलू को याद करता हूं तो यक-ब-यक मिर्ज़ा ग़ालिब और उनकी चिमगोइयां याद आती हैं.

एक मिसाल -  मजाज़ एक बार रात में एक बाज़ार से अकेले ही टहलते हुए गुज़र रहे थे. अचानक ही उनकी नज़र एक दुकान के बाहर निकले लकड़ी के पटियों पर पड़ी, जिस पर एक शायर 'सोज़ शाहजहांपुरी' बैठे हुए थे. जिस दुकान के बाहर वो बैठे थे ठीक उसी के ऊपर दुकान का बोर्ड लगा था - 'चीप शू स्टोर'. मजाज़ की नज़र दोनो पर एक साथ पड़ी, उन्होने एक नज़र ऊपर डाली और फिर सोज़ साहब की की तरफ मुखातिब होकर बड़े चुहल भरे अंदाज़ में कहा - 'मियां! आप अभी तक नहीं बिक पाए?'

बकौल प्रकाश पंडित मजाज़ महफिलों में जो फुलझडिय़ां छोड़ते थे सो तो ठीक लेकिन राह चलते भी लोगों से छेड़ की आदत कम न थी. एक बार एक तांगे को रोककर, तांगे वाले से बोला, 'क्यों मियां, कचहरी जाओगे?' तांगे वाले ने सवारी मिलने की आशा से प्रसन्न होकर उत्तर दिया, 'जाएंगे साब.' 'तो जाओ' मजाज़ कहकर अपने रास्ते पर हो लिया.

और वो मटके वाली बात. किसी ने एक बार मजाज़ को समझाया कि वो अपनी शराबनोशी पर काबू पाने के लिए एक तयशुदा वक़्त में घड़ी सामने रखकर एक तयशुदा मिक़दार में शराब पीना शुरू करें. मजाज़ का जवाब था कि जोश तो घड़ी सामने रखकर शराब पीते हैं, मेरा बस चले तो मैं घड़ा सामने रखकर पिया करूं.  

न जाने कितने कितने किस्से, न जाने कितनी कहानियां. सब कह भी डालूं तो मजाज़ की बात कभी पूरी न हो सकेगी. सो बेहतर है कि उनके फ़िल्मी दुनिया वाले किस्से को ही पूरा कर लूं.

बहरहाल, 'अरब की हूर' के गीत आख़िर शकील बदायूनी के हिस्से में आए. और मजाज़-साहिर लौट के घर को आए. 

साहिर के दिल में मजाज़ के लिए एक गहरी अक़ीदत का जज़्बा था. वो अपने इस जज़्बे को मजाज़ पर एक फिल्म की शक्ल में दुनिया के सामने पेश करना चाहते थे, लेकिन वह हो नहीं पाया. इस सबके बावजूद मजाज़ का नशा, साहिर के दिल-ओ-दिमाग़ पर इस क़दर तारी था कि वो अक्सर उनकी शायरी तक में छलक आता था. 

(जारी)

No comments: