11.
दुर्दांत
रात की कविता
-कौशिक किसलय
दुर्दांत
मनुष्यों की तरह ही गहराती है रात
मेरे
सीने में दूध की धारा
कूबड़
वाले मनुष्यों की तरह ही दुर्दांत
अथवा
वे मृत सिपाही जिनकी पुकार
शाम
तक प्रतिध्वनित होती रहती है सीने के दूध में
कोई
नारी सहन नहीं कर सकती
उन
दुर्दांत रातों और
बूट
जूतों की चमक को
अभी
सिपाही नहीं हैं
जबकि
रातें हैं उतनी ही दुर्दांत
पुल
के उस पार हमारा घर
कमल
बरूवा
पुल
के उस पार हमारा घर
इस
पार वैतरणी की राह
टेढ़ी-मेढ़ी
लंबी
राह
के किनारे सुनता हूं जीवन का
गान
और देखता हूं
हसीन
जलचित्र का कोलाज
मोड़
पर मुड़कर आहत होता हूं
शोक
में खिल उठते हैं
विषाद
के बकुल
पुल
के उस पार हमारा घर
इस
पार से पता नहीं चलता
पगथली
में मां का इंतज़ार
और
वीरानी में नीली चिडिय़ा की पुकार
जा
रहा हूं मैं
इस
पार से जीव को बांधकर
सीने
एक कोने में
और
देखी नहीं है
वापसी
की राह में सपने की धरती की छाया
पुल
के उस पार हमारा घर
इस
पार से सुनाई नहीं देता
मुक्ति
से उदासीन है जो...
चुपके
से कदम बढ़ाकर
सिर्फ
चलता जा रहा हूं मैं
वैतरणी
की काली राह पर...
12.
पत्थर
का जीवन
-मधुमिता महन
पत्थर
का भी जीवन है
है
आंखों में पानी
पत्थर
लहरें उठाता है पानी के संग
पत्थरों
के टुकड़े होते हैं
उसकी
मर्मवेदना कोई नहीं समझता
पत्थर
केवल अपना इम्तहान लेते हैं
पत्थर
सुरहीन गीत गाते हैं
पत्थर
का मजाक उड़ाकर गुजर जाती हैं
कई
नदियों की धाराएं
13.
रात
के अंधेरे में गर्भवती होने वाली एक नदी
-मणिका दास
एक
चट्टान के सीने से बहकर आती है
रात
के अंधेरे में गर्भवती होने वाली एक नदी
विदा
का गीत गा गाकर चली जाती हैं
उजली
पीली मछलियां
शोक
से झुक जाते हैं
दो
प्राचीन पीपल के पेड़
और
एक जाल बुन पाने में नाकाम होकर
छटपटाती
हुई मैं पड़ी रहती हूं
दोनों
पीपल के बगल में
14.
पिता
पत्थर बनकर बैठे रहते हैं
-संस्कृत सौरभ बोरा
जंगल
को साफ कर दादाजी का बनाया गया लकड़ी का
विशाल
बंगला अब धूल में लिपटा हुआ है
पिता
की आंखों में मोतियाबिंद हो गया है
खिड़की
से पश्चिम की हवा आती है
खिड़की
से उत्तर की हवा निकलती है
खिड़की
से पूरब की हवा आती है
खिड़की
से दक्षिण की हवा निकलती है
पिता
के सीने पर बर्फ गिर रही है
पिता
पत्थर बनकर बैठे रहते हैं बरामदे में
दरवाजे
से कौन निकलता है दरवाजे से कौन घुसता है
दरवाजा
कौन खोलता है दरवाजा कौन बंद करता है
आने-जाने
और बंद करने-खोलने के बारे में
पूछने
के लिए मैं पिता के पास जाता हूं
पिता
पत्थर बनकर बैठे रहते हैं बरामदे में
बंगले
के अंदर हंसी
बंगले
के अंदर थोड़ी सिसकी
बंगले
की फर्श पर किसी की पदचाप
बंगले
के किसी कमरे में किसी की गुनगुनाहट
हर
दरवाजे पर सीटी
कौंवों
के झुंड में से किसी एक कौवे के दांत
टूटते
हैं ट्यूबवेल से टकराकर शोर मचता है पड़ोस में
लौटकर
मैं पिता को देखने के लिए जाता हूं
सीने
का अंधेरा लेकर अंधेरे में ही बैठा रहता है मिट्टी का एक घड़ा
15.
मेरे
दोनों हाथ
(नीलमणि
फुकन के लिए)
-युगज्योति दास
मेरे
दोनों हाथों को छू लो
दुख
के रंग का नीले मेरे दोनों हाथ
इस
उपत्यका के सबसे अधिक शीर्ण हाथ
फैला
दिया है
वहीं
आंसू गिराओ
सूरज
के झुलसाए हुए मेरे दोनों हाथ
हंसी
को गंवाकर आए मेरे दोनों हाथ
अत्यंत
एकाकी
आओ
आंसू के साथ सहारा दो
फैला
दिया है
अपने
इस विनम्र दोनों हाथ को
No comments:
Post a Comment