मुंशी हरगोपाल तफ्ता के
नाम एक और ख़त
कोल में आना और मुंशी नबी
बख्श साहिब के साथ ग़ज़लख्वानी करनी और हमको याद न लाना. मुझसे पूछो कि मैंने
क्यों कर जाना कि तुम मुझको भूल गए. कोल
में आए और मुझको अपने आने की इत्तिला न दी. न लिखा कि मैं क्यों कर आया हूँ और कब
आया हूँ और कब तक रहूँगा और कब जाऊँगा, और बाबू साहिब से कहाँ जा मिलूँगा.
ख़ैर, अब जो मैंने बेहयाई करके तुमको लिखा है, लाज़िम है कि मेरा क़सूर माफ़ करो और मुझको सारी अपनी हक़ीक़त लिखो.
तुम्हारे हात की लिखी हुई
ग़ज़लें, बाबू
साहिब की, मेरे पास मौजूद हैं और इस्लाह पा चुकी हैं. अब मैं
हैरान हूँ कि कहाँ भेजूँ? हरचंद उन्होंने लिखा है कि
अकबराबाद, हाशिम अली ख़ां को भेज दो, लेकिन
मैं न भेजूँगा. जब वे अजमेर या भरतपुर पहुँचकर मुझको ख़त लिखेंगे, तो मैं उनको वे औ़राक़ इरसाल करूँगा. या तुम जो लिखोगे, उस पर अमल करूँगा.
भाई, एक दिन
शराब न पियो या कम पियो और हमको दो-चार सतरें लिख भेजो, कि
हमारा ध्यान तुममें लगा हुआ है. रक़मज़दा यक शाबा चारुम जनवरी सन १८५२ ई.
-असदुल्लाह
(कोल - अलीगढ़ का
पुराना नाम, अकबराबाद - आगरा, औ़राक़ - पन्ने, वर्क, इरसाल करूंगा - दूंगा, रक़मज़दा
- लिखित, यक शाबा चारुम जनवरी - रविवार चौथी जनवरी)
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