सैयद यूसुफ़ मिर्ज़ा के नाम
यूसुफ़ मिर्ज़ा,
मेरा हाल सिवाय मेरे ख़ुदा और ख़ुदावन्द के कोई नहीं जानता. आदमी
क़सरते-ग़म से सौदाई हो जाते हैं, अक्ल जाती रहती है. अगर इस हुजूमे ग़म में मेरी
क़ुव्वते मुतफ़िक्करा में फ़र्क आ गया तो क्या अजब है? बल्के इसे बावर न करना गज़ब है.
पूछो के ग़म क्या है? ग़मे मर्ग, ग़मे फ़िराक, ग़मे रिज्क, ग़मे इज़्ज़त? ग़मे मर्ग में,
किले ना मुबारक से क़ते नज़र करके अहले शहर को गिनता हूँ - मुज़फ्फरुद्दौला मीर
नासिरुद्दीन, मिर्ज़ा आशूर बेग मेरा भांजा, उसका बेटा अहमद मिर्ज़ा उन्नीस बरस का
बच्चा, मुस्तफ़ाखां इब्न आज़मुद्दौला, उसके दो बेटे इर्तिज़ा खां और मुर्तज़ा खां ,
काजी फैज़ुल्ला. क्या मैं इनको अपने अजीजों के बराबर नहीं जानता था? ये लो भूल गया
- हकीम रज़ीउद्दीन खां, मीर अहमद हुसैन 'मैकश'. अल्लाह अल्लाह! इनको कहाँ से लाऊँ?
ग़मे फिराक़ - हुसैन मिर्ज़ा, यूसुफ़ मिर्ज़ा, मीर मेहदी, मीर सरफ़राज़
हुसैन , मीरां साहब खुदा इनका जीता रखे. काश ये होता के जहां होते, वहां खुश होते.
घर उनके बेचिराग, वो खुद आवारा. सज्जाद और अकबर के हाल का जब तसव्वुर करता हूँ,
कलेजा टुकड़े टुकड़े होता है. कहने को हर कोई ऐसा कहता है, मगर मैं अली को गवाह करके
कहता हूँ के उन अमवात के ग़म में और
जिन्दों की फ़िराक में आलम मेरी नज़र में तीरह व तार है. हक़ीकी मेरा एक भाई दीवाना
मर गया. उसकी बेटी, उसके चार बच्चे, उसकी माँ याने मेरी भावज, जैपुर में पड़े हैं.
इस तीन बरस में एक रुपया उनको नहीं भेजा. भतीजी क्या कहती होगी के मेरा भी कोई चचा
है! यहाँ अग़निया और उमरा के अज़वाज व औलाद भीक मांगते फिरें और मैं देखूं! इस
मुसीबत की ताब लाने को जिगर चाहिए.
अब ख़ास अपना दुख रोता हूँ. एक बीवी, दो बच्चे, तीन चार आदमी घर के,
कल्लू, कल्यान, अयाज़ ये बाहर, मदारी के जोरू बच्चे बदस्तूर, गोया मदारी मौजूद है.
मियाँ चम्मन गए महीना भर से आ गए के भूका मरता हूँ. अच्छा भाई, तुम भी रहो, एक
पैसे की आमद नहीं; बीस आदमी रोटी खाने वाले मौजूद. मुकामे मालूम से कुछ आये जाता
है; वो बकद्रे सद्दे रमक़ है. मेहनत वो है के दिन रात में फुर्सत काम से कम होती
है. हमेशा एक फ़िक्र बराबर चली जाती है. आदमी हूँ, देव नहीं, भूत नहीं. इन रंजों का
तहम्मुल क्यों कर करूं? बुढ़ापा, जोफ़े कुआ अब मुझे देखो तो जानो के मेरा रंग क्या
है. शायद कोई दो-चार घड़ी बैठता हूँ, वर्ना
पड़ा रहता हूँ, गोया साहबेफ़र्राश हूँ, न कहीं जाने का ठिकाना, न कोई मेरे पास
आनेवाला. वो अर्क जो बक़द्रे ताक़त को बनाए रखता था, अब मयस्सर नहीं. सबसे बढ़ कर आमद
आमदे गवर्मेन्ट का हंगामा है. दरबार में जाता था, खलते फ़ाख़िरा पाता था, वो सूरत अब
नज़र नहीं आती. न मकबूल हूँ न मरदूद हूँ, न बेगुनाह हूँ, न गुनाहगार हूँ, न मुखबिर,
न मुफ़सिद, भला ए.बी.ए. तुम ही कहो के गर यहाँ दरबार हुआ और मैं बुलाया जाऊं तो नज़र
कहाँ से लाऊँ? दो महीने दिन रात खूने जिगर खाया और एक कसीदा 64 बैत का लिखा.
मुहम्मद फज़ल मुसव्विर को दे दिया. वो पहली दिसंबर को मुझको देगा. उसका मतला है -
जे साले नौ दिगर आबे बरू ए कारामद
हज़ारो हश्त सदो शस्त दर शुमारामद.
इसमें इल्तज़ाम करके अपनी
तमाम सरगुज़िश्त लिखने का क्या है? इसकी नक़ल तुमको भेजूंगा. मेरे आक़ा ज़ाद ए रोशन
गुहर जनाब मुफ़्ती मीर अब्बास साहब को दिखाना. इस बुझे हुए बल्के मरे हुए दिल पर
कलाम का ये असलोब है! जहां पनाह की मदह का फ़िक्र न कर सका. ये कसीदा ममदूह की नज़र
से गुज़रा न था, मैंने इसी में अमज़द अली शाह की जगह वाजिद अली शाह को बिठा दिया.
खुदा ने भी तो यही किया था.अनवरी ने बारहा ऐसा किया है कि एक का कसीदा दूसरे के
नाम पर कर दिया. मैंने अगर बाप का कसीदा बेटे के नाम पर कर दिया तो क्या गज़ब
हुआ?और फिर कैसी हालत और कैसी मुसीबत में के जिसका ज़िक्र बतारीके अख्तसार ऊपर लिख आया हूँ.
इस क़सीदे से मुझको अर्जे दस्तगाहे सुखन मंज़ूर नहीं, गदाई मंज़ूर है. बहरहाल ये तो
कहो कसीदा पहुंचा या नहीं पहुंचा. परसों तुम्हारे मामू का ख़त आया. वो क़सीदे का
पहुंचना लिखते हैं, कल तुम्हारा ख़त आया, उसमें क़सीदे के पहुँचने का ज़िक्र नहीं. इस
तफ़र्के को मिटाओ और साफ़ लिखो के कसीदा पहुंचा या नहीं? अगर पहुंचा तो हुज़ूर में
गुजरा या नहीं? अगर गुज़रा तो किसकी मार्फत गुज़रा और क्या हुक्म हुआ? ये उमूर जल्द
लिखो और हाँ ये भी लिखो के अमलाक वाक़े शहर दिल्ली के बाब में क्या हुआ?
मैं तुमको
इत्तिला देता हूँ के कल मैंने फर्दे फेहरिस्ते देहात व बागात व अमलाक माय हासिले
हर बागो देहर व मिल्क नाज़िरजी को भेज दी है. इस ख़त से एक दिन पहले वो फर्द पहुंचेगी.
ये फर्द कलक्टरी के दफ्तर से ली है , मगर इतना ही मालूम है के शहर की इमारत, जो
सड़क में नहीं आई और बरसात में ढह नहीं गयी वो सब खाली पड़ी है. किरायेदार का नाम
नहीं. मुझको यहाँ की अम्लाक का इलाका हुसैन मिर्ज़ा साहब के वास्ते मतलूब है. मैं
तो पिन्सन के बाब में हुक्मे अखीर सुन लूं फिर रामपूर चला जाऊंगा. जमादिअलअव्वल से
जिलहज्जा ताल आठ महीने और फिर मुहर्रम से, सन १२७७ हिजरी से साल शुरू होगा. इस साल
के दो-चार, हद दस-ग्यारह महीने, गरज के 19-20 महीने हर तरह बसर करने हैं. इसमें
रंजो राहत व ज़िल्लत व इज़्ज़त जो मक़सूम में है वो पहुँच जाए, और फिर अली-अली कहता हुआ
मुल्के अदम को चला जाऊं. जिस्म
रामपुर में और रूह आलमे नूर में, या अली-या अली-या अली!
मियां,
हम तुम्हें एक और खबर लिखते हैं. बरह्मा का पुत्तर दो दिन बीमार पड़ा, तीसरे दिन मर
गया है. हैय, हैय! क्या नेकबख्त गरीब लड़का था. बाओ उसका शिवजीराम उसके ग़म में
मुर्दे से बदतर है. ये दो मुसाहिब मेरे यों गए एक मुर्दा एक दिल अफ़्सुर्दा. कौन है
जिसको तुम्हारा सलाम कहूं. ये ख़त अपने मामू साहब को पढ़ा देना और फर्द उनसे लेकर पढ़
लेना और जिस तरह उनकी राय में आये उस पर हुसूले मतलन की बिना उठाना; और इन सब मदारिज़
का जवाब शिताब लिखना. जियाउद्दीन खां रोहतक चले गए और वो कल न कर गए, देखिये आकर
क्या कहते हैं. या रात को आ गए हों या शाम तक आ जाएं. क्या करूं? किसके दिल में
अपना दिल डालूँ?
ब मुर्तज़ाअली! पहले से
नीयत में ये है के जो शाहे अवध से हात आए हिस्सए बिरादराना करूं. निस्फ़ हुसैन
मिर्ज़ा और तुम और सज्जाद, निस्फ़ मैं मुफलिसों का मदार. हयात खयालात पर है,
मगर उसी खयालात से उनका हुस्ने तबीयत मालूम हो जाता है.
बस्सलाम खैर खत्ताम.
दो शम्बा, दोअम
जमादिल अव्वल सन १२७६ हि. मुताबिक़ 28 नवम्बर सन १८५९ ई. वक्ते सुबह.
(सौदाई - पागल, क़ुव्वते मुतफ़िक्करा - चिंतन शक्ति, ग़मे
मर्ग - मृत्यु का दुख, ग़मे फ़िराक - वियोग का दुःख, ग़मे रिज्क - भरण-पोषण
का दुख, किले नामुबारक - अशुभ लाल किला, अहले शहर - नगर निवासी, अमवात
- मौतें, तीरह व तार - अंधकारपूर्ण, अग़निया - संपन्न व्यक्ति, अज़वाज
- पत्नियां, बकद्रे सद्दे रमक़ - केवल पेट भराई, तहम्मुल - संतोष, जोफ़े
कुआ - शरीर की निर्बलता, अर्क - शराब, खलते फ़ाख़िरा - प्रतिष्ठित
वेश, मुफ़सिद - उत्पाती, जे साले नौ दिगर आबे बरू ए कारामद/ हज़ारो हश्त सदो शस्त दर शुमारामद - नए साल के कारण काम में एक नई तरह की शोभा उत्पन्न हो गयी है. साल १८६०., इल्तज़ाम - आवश्यकता, आक़ा ज़ाद ए रोशन गुहर - मोतियों की तरह चमकनेवाला मालिक का बेटा, असलोब - ढंग, अर्जे दस्तगाहे सुखन - कवित्व की शक्ति प्रदर्शित करना अभीष्ट नहीं, तफ़र्के - अंतर, हिस्सए बिरादराना - भाई-बन्धु का हिस्सा, निस्फ़ - आधा, मुफलिसों का मदार - दरिद्रों का केंद्र)
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