Saturday, December 10, 2016

क्या ऐश लूटते हैं, मासूम भोले भाले


बचपन
-बाबा नज़ीर अकबराबादी 

क्या दिन थे यारो वह भी थे जबकि भोले भाले
निकले थी दाई लेकर फिरते कभी ददा ले
चोटी कोई रखा ले बद्धी कोई पिन्हा ले
हँसली गले में डाले मिन्नत कोई बढ़ा ले
मोटें हों या कि दुबले, गोरे हों या कि काले
क्या ऐश लूटते हैं मासूम भोले भाले

दिल में किसी के हरगिज़ न शर्म न हया है
आगा भी खुल रहा है,पीछा भी खुल रहा है
पहनें फिरे तो क्या है, नंगे फिरे तो क्या है
याँ यूँ भी वाह वा है और वूँ भी वाह वा है
कुछ खाले इस तरह से कुछ उस तरह से खाले
क्या ऐश लूटते हैं, मासूम भोले भाले

मर जावे कोई तो भी कुछ उनका ग़म न करना
ने जाने कुछ बिगड़ना, ने जाने कुछ संवरना
उनकी बला से घर में हो क़ैद या कि घिरना
जिस बात पर यह मचले फिर वो ही कर गुज़रना
माँ ओढ़नी को, बाबा पगड़ी को बेच डाले
क्या ऐश लूटते हैं, मासूम भोले भाले

जो कोई चीज़ देवे नित हाथ ओटते हैं
गुड़, बेर, मूली, गाजर, ले मुँह में घोटते हैं
बाबा की मूँछ माँ की चोटी खसोटते हैं
गर्दों में अट रहे हैं, ख़ाकों में लोटते हैं
कुछ मिल गया सो पी लें, कुछ बन गया सो खालें
क्या ऐश लूटते हैं मासूम भोले भाले

जो उनको दो सो खा लें, फीका हो या सलोना
हैं बादशाह से बेहतर जब मिल गया खिलौना
जिस जा पे नींद आई फिर वां ही उनको सोना
परवा न कुछ पलंग की ने चाहिए बिछौना
भोंपू कोई बजा ले, फिरकी कोई फिरा ले
क्या ऐश लूटते हैं, मासूम भोले भाले

ये बालेपन का यारो, आलम अजब बना है
यह उम्र वो है इसमें जो है सो बादशाह है
और सच अगर ये पूछो तो बादशाह भी क्या है
अब तो नज़ीर मेरी सबको यही दुआ है
जीते रहें सभी के आसो-मुराद वाले

क्या ऐश लूटते हैं, मासूम भोले भाले 

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