प्रिय मित्र-लेखक शम्भू राणा का यह गद्य कई बरस पहले
कबाड़खाने में छप चुका है. कल उन्होंने इसका लिंक भेजा तो मन हुआ इसे एक बार फिर
यहाँ सबके साथ बांटा जाए -
सभी
को पता है फिर भी बताना ठीक रहता है कि नया साल आ गया. अपना मकसद नये साल की बधाई
देना नहीं है. अपनी ज़बान में कुछ ऐसी तासीर है कि जिसे नया साल मुबारक कहा, उनमें से ज्यादातर की जेब साल की शुरूआत में ही कट गयी. इसी तरह लोगों की
दुआ भी अपने लिये दुआ ही रही दवा नहीं बन पायी.
दरअसल
मैं कुछ और कह रहा था, शुरूआत में ही भटक गया. कहना
चाह रहा था कि दिसम्बर महीने का अंत और जनवरी की शुरूआत कैलेण्डरों के लिये पतझड़
भी है और मौसमे-बहार भी. पुराने कैलेण्डर उतर जाते हैं, उनकी
जगह नये दीवारों में टाँक दिये जाते हैं. यह कैलेण्डर और डायरियाँ बटोरने का सीजन
होता है. चाहे जहाँ से, जितने मिल जायें, न कहने का रिवाज नहीं है. कोई चाहे एक करोड़ कैलेण्डर छाप ले, शर्तिया कम पड़ेंगे और कई लोग नाराज मिलेंगे- भाई साहब हमें आपका कैलेण्डर
नहीं मिला. हम आपको ऐसा नहीं समझते थे. आदमी कुछ इस अदा से शिकायत करता है जैसे
कैलेन्डर रूपी पासपोर्ट के बिना उसे नये साल में दाखिल होने से रोक दिया गया हो.
बेचारे की आपने जिंदगी तबाह कर दी. एक जरा सी कागज के टुकड़े के लिये. हद है
कमीनेपन की भी.
कोई
आदमी कैलेण्डर लेकर जा रहा हो तो, जरा देखूँ कैसा है कह कर
भाग जाने की भी परम्परा है. लुटा हुआ आदमी भी कुछ खास बुरा नहीं मानता, लुटेरे को दो-चार गालियाँ देकर बात भूल जाता है.
जिस
तरह कुछ लोगों को पानी भरने का खब्त होता है, वैसे ही
कुछों को कैलेण्डर बटोरने का रोग होता है. जगह के अभाव में भले ही एक के ऊपर
दूसरा-तीसरा टाँक देंगे पर कैलेण्डर के लिये खुशामद, सिफारिश
और छीन-झपट से भी परहेज नहीं करेंगे.
यह
सब एक प्रकार का सोद्देश्य कर्मयोग है, जो कैलेन्डर
रूपी फल की इच्छा से किया जाता है. इसकी शिक्षा गीता नहीं देती. उसका कारण है.
श्रीकृष्ण के जमाने में कैलेण्डर नहीं होते थे. अगर होते तो महाभारत का युद्ध जनता
की भारी माँग पर 19 दिन चलता और गीता 18+1 अध्याय की होती. कृष्ण ने अर्जुन से
अवश्य यह कहा होता कि हे अर्जुन, सुन जरा ध्यान से और
वेदव्यास, तू भी सुन इस अध्याय को जरा बड़े फोंट में लिखना.
प्रूफ की गलती तो हरगिज मत करना. तो अर्जुन चाहे जो हो, तू
दिसम्बर के महीने में न तो आखेट को जाना, न युद्ध करना और न
ही किसी सुंदरी के अपहरण का प्लान बनाना. आउट ऑफ स्टेशन मत होना, शहर में ही रहना और हर लाले-बनिये, बैंक एल.आइ.सी.
से कैलेण्डर और डायरी प्राप्त करने का जी तोड़ प्रयत्न करना. प्यार से माँगना,
खुशामद करने में मत शर्माना. इस पर भी न मिले तो खड्ग दिखाना. फिर
भी न मिले कैलेण्डर तो अपमान का घूँट पी जाना. थोड़ा धैर्य रखना. मार्च में होलियों
से निपट कर कैलेण्डर न देने वाले के खिलाफ युद्ध छेड़ देना. धर्म और नीति यही कहती
है. हे पार्थ, जो मनुष्य अपने इस कर्म से विमुख होता है उसकी
आत्मा उसे बाकी के तीन सौ पैंसठ दिन कचोटती रहती है. मृत्यु के बाद ऐसे व्यक्ति के
लिये द्वारपाल बावजूद सुविधाशुल्क के नरक के दरवाजे नहीं खोलते. हे महाबाहो,
तू इस पाप का भागी मत बनना.
साधारण
से कैलेण्डरों के लिये जब इतनी मारामारी है तो विजय माल्या के कैलेण्डर पाने के
लिये कोई किसी का कत्ल कर दे या सरकार अल्पमत में आ जाये तो कम से कम अपने को कोई
हैरानी नहीं होगी.
कैलेण्डरों
की लोकप्रियता पर किसी को कोई संदेह नहीं होना चाहिये. जो चीज लोकप्रिय होती है
उसका अगर कोई रचनात्मक और लोक कल्याणकारी इस्तेमाल किया जाये तो क्या बुरा है.
धंधे को प्रभावित किये बिना अगर थोड़ी समाज सेवा भी हो जाये तो किसे एतराज होगा.
मसलन,
मेरे दिमाग में एक आइडिया है जिसे जनहित में प्रकाशित करवाना चाहता
हूँ. इससे लोगों का समय बचेगा और स्वास्थ्य भी उत्तम रहेगा. आइडिया कुछ यूँ है-
शेर की दहाड़ती हुई सजीव तस्वीर वाला कैलेण्डर छापा जाये. किसी फिल्म स्टार से ऐसे
कैलेण्डर का प्रचार करवाया जाये कि इसे कमरे में नहीं, पाखाने
में अपने बैठने के ऐन सामने टाँकें. फिल्म स्टार से कहलवाया जाय कि जब से मैंने इस
कैलेण्डर को इसके उचित स्थान पर टाँका तब से मैं शूटिंग में समय से पहुँचता हूँ.
मेरी रूठी हुई गर्ल फ्रैंड भी लौट आयी, मेरे कैरियर में
टर्निंग प्वाइंट आया वगैरा-वगैरा ...
यह
तो एक मिसाल थी. ऐसे और भी बहुत से विचार हो सकते हैं, जिनसे कैलेण्डरों को और ज्यादा सार्थक और उपयोगी बनाया जा सकता है.
No comments:
Post a Comment